SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 118 यदि गौरित्ययं शब्दो विधत्तेन्यनिवर्तनम् / विदधीत तदा गोत्वं तन्नान्यापोहगोचरः // 42 // स्वलक्षणमन्यस्मादपोह्यतेनेनेत्यन्यापोहो विकल्पस्तं यदि गोशब्दो विधत्ते तदा गामेव किं न विदध्यात्। तथा च नान्यापोहशब्दार्थः गोशब्देनागोनिवृत्तेः कल्पनात्मिकायाः स्वयं विधानात् // अगोनिवृत्तिमप्यन्यनिवृत्तिमुखतो यदि / गोशब्दः कथयेनूनमनवस्था प्रसज्यते // 43 // _____न गौरगौरिति गोनिवृत्तिस्तावदेका ततो द्वितीया त्वगोनिवृत्तिस्ततोन्या तन्निवृत्तिस्तृतीया ततोन्यनिवृत्तिश्चतुर्थी यदि गोशब्देन कथ्यते तन्मुखेन गतिप्रवर्तनात् तदा सापि न गोशब्देन विधिप्राधान्येनाभिधेया द्वितीयनिवृत्तेरपि तथाविधेयत्वप्रसंगात् / गौरेव विधिसिद्धेः स्वान्यनिवृत्तिद्वारेणाभिधीयत इति चेत् , तर्हि यदि 'गो' यह शब्द अन्य का अपोह (निवर्तन) करता है निषेध करता है तो गोत्व का विधान हो ही जाता है क्योंकि गो शब्द एकान्त से अन्यापोहगोचर नहीं है, अपितु विधि निषेधात्मक है विधि और निषेध एक साथ रहते हैं अर्थात् रोगी नहीं है ऐसा कहने पर यह नीरोग है, यह अपने आप सिद्ध हो जाता है॥४२॥ बौद्ध दर्शन में वास्तविक वस्तु स्वलक्षणस्वरूप है। उस स्वलक्षणं के सिवाय अन्य वस्तु का निराकरण जिसके द्वारा किया जाता है,वह अन्यापोह कहलाता है। वह अन्यापोह विकल्प है, उस अन्यापोह रूप विकल्प का गो शब्द विधान (कथन) करता है तो वह जो शब्द साक्षात् गो व्यक्ति का कथन क्यों नहीं करता तथा च (इसलिए) शब्द का वाच्य अर्थ अन्यापोह ही नहीं है क्योंकि गोशब्द के द्वारा कल्पनास्वरूप अगो (घोड़ा आदि गाय के सिवाय वस्तुओं) की निवृत्ति स्वयं बौद्धों ने स्वीकार की है अर्थात् गो शब्द से 'अगो' की निवृत्ति है और गो का विधान होता है, यह स्वयं सिद्ध होता है। गो शब्द यदि अगो की निवृत्ति विधि (भाव) रूप से नहीं करता है अपितु अन्य पदार्थ की निवृत्ति की मुख्यता से करता है, ऐसा मानते हैं तब तो निश्चय से अनवस्था दोष आता है अर्थात् गो का कथन करने के लिए भैंस का अभाव कहा जायेगा और उसके अभाव के लिए घोड़ें का अभाव कहा जायेगा, इत्यादि रूप से अनवस्था दोष आयेगा॥४३॥ बौद्ध दर्शन में गो शब्द का वाच्य अर्थ अगोनिवृत्ति माना है। उस पर विचार किया जाता है कि सर्वप्रथम जो गौ नहीं है, वह अगो कहलाती है, यह एक गो निवृत्ति हुई। उसके अनन्तर अगो की निवृत्ति हुई यह दूसरी निवृत्ति है। यदि इस दूसरी को भी निषेध मुख से कहेंगे तो उससे तीसरी निवृत्ति होगी। उसके बाद अपोह रूप चतुर्थी निवृत्ति होगी। यदि उस अपोह के मुख्यपने से गो शब्द से गति (ज्ञान) की प्रवृत्ति कही जाती है तो उस काल में भी वह चतुर्थ निवृत्ति विधि प्रधान गो शब्द से अभिधेय (कहने योग्य) नहीं होती है। यदि चतुर्थ निवृत्ति को विधि रूप से कथन करती है ऐसा माना जायेगा तो दूसरी निवृत्ति के भी विधि रूप से अभिधेयत्व का प्रसंग आयेगा।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy