________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 117 संस्थानविशेषश्च निश्चीयत इति चेत् , कुत:प्रत्ययविशेषसिद्धिः? न तावत्स्वसंवेदनतः सिद्धांतविरोधात् / प्रत्ययांतराच्चेदनवस्था / विषयविशेषनिर्णयादिति चेत् , परस्पराश्रयणं, विषयविशेषस्य सिद्धौ प्रत्ययविशेषस्य सिद्धिः तत्सिद्धौ च तत्सिद्धिरिति / न चैवं सर्वत्र विशेषव्यवस्थापह्नवः स्वसंविदितज्ञानवादिनां प्रत्ययविशेषस्य स्वार्थव्यवसायात्मनः स्वतः सिद्धेः सर्वत्र विषयव्यवस्थोपपत्तेः। कथं चायमाकृतीनां गोत्वादीनां परस्परं विशिष्टकृतामपरविशेषेण विरहोपि स्वयमुपपन्नः। गवादिव्यक्तीनां विशेषणवशादेव तामुपगच्छेत् तथा दृष्टत्वादिति चेत् न, तत्रैव विवादात् / तदविवादे वा व्यक्त्याकृत्यात्मकस्य वस्तुनः पदार्थत्वसिद्धिस्तथा दर्शनस्य सर्वत्र भावात् / योपि मन्यतेऽन्यापोहमानं शब्दस्यार्थ इति तस्यापि यदि आकृतिवादी कहें कि ज्ञान विशेष से आकृति विशेष और संस्थान विशेष का निर्णय होता है तो जैनाचार्य कहते हैं कि उन प्रत्यय विशेषों की सिद्धि कैसे होती है? स्वतः स्वसंवेदन से तो प्रत्यय विशेष की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि ऐसा मानने पर सिद्धान्त में विरोध आता है क्योंकि नैयायिकों ने ज्ञान का प्रत्यक्ष होना अन्य ज्ञानों से स्वीकार किया हैं। . दूसरे ज्ञानों से प्रत्यय विशेष की सिद्धि मानते हैं तो अनवस्था दोष आता है। यदि विषय विशेष से प्रत्यय विशेष की सिद्धि मानते हैं तो अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। क्योंकि विषयों के विशेषता की सिद्धि होने पर ज्ञान विशेष की सिद्धि होती है और ज्ञान विशेष की सिद्धि होने पर विषयों में विशेषता की सिद्धि होती है। इस प्रकार अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। ऐसा मानने पर सर्वत्र विशेष व्यवस्था का अपह्नव (लोप) हो जायेगा, ऐसा नहीं है क्योंकि स्वसंविदित ज्ञानवादियों के ज्ञान विशेष का स्वार्थ व्यवसायात्मक (निर्णय) स्वतः सिद्ध होता है अर्थात् अभ्यास दशा में ज्ञान की प्रमाणता का निर्णय स्वतः होता है और उससे सर्वत्र विषयों की विशेषताओं की व्यवस्था हो जाती है अर्थात् स्याद्वादियों के दर्शन में कोई दोष नहीं आता है। ____ गोत्व, अश्वत्व आदि आकृतियों की परस्पर विशेषताओं का निर्णय अन्य विशेषों के अभाव में भी स्वयं होता है ऐसा स्वीकार करने वाला यह नैयायिक गो आदि व्यक्तियों की उस विशिष्टता को विशेषणों ' के आधीन स्वयं क्यों नहीं स्वीकार करता है अर्थात् जैसे आकृतियों को विशेषता के बिना स्वीकार करता है तो गो आदि व्यक्तियों को विशेषता रहित स्वीकार क्यों नहीं करता है। वे आकृतियाँ स्वयं विशेषता रहित दृष्टिगोचर होती हैं, वैसे व्यक्तियाँ विशेषता रहित दृष्टिगोचर नहीं होती हैं, ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि इसमें विवाद है कि आकृतियों के समान व्यक्तियाँ विशेषता रहित दृष्टिगोचर क्यों नहीं होती हैं। यदि इसमें विवाद नहीं है तब तो व्यक्ति और आकृति आत्मक वस्तु के पदार्थत्व (पद के वाच्य अर्थ) की सिद्धि होती है क्योंकि सर्वत्र शब्द को सुनकर व्यक्ति और आकृति आत्मक वस्तु का ही दर्शन (ज्ञान) होता है। ___ जो बौद्ध शब्द का वाच्य अर्थ केवल अन्यापोह मानते हैं (वस्तु का स्वभाव अस्तित्व) शब्द के द्वारा कहा नहीं जाता है अपितु अभाव ही कहा जाता है, ऐसा मानते हैं उनका खण्डन करते हैं: