________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 115 तद्वदात्मत्वादि तदनभिव्यंग्यं बहुधा प्रत्येयं / गोत्वं पुनर्न सास्नादिसन्निवेशविशेषमंतरेण पिंडमात्रेण युज्यते अश्वादिपिंडेनापि तदभिव्यक्तिप्रसंगात् / तथा राजत्वमानुषत्वादि सर्वमिति कश्चित् / सोपि न विपश्चित् / लोहितत्वादेः संस्थानविशेषरहितेन लोहितादिगुणेन व्यवच्छेद्यमानत्वात् / पचत्यादिसामान्यस्य च पचनादिकर्मणा तादृशेन व्यंग्यत्वादाकृतित्वाभावानुषंगात् / सत्त्वादिजातेश्चाकृतित्वानभ्युपगमे कथमाकृतिरेव पदार्थ इत्येकांत: सिद्ध्येत् / जातिगुणकर्मणामपि पदार्थत्वसिद्धेय॑क्ताकृतिजातयश्च पदार्थ इत्यभ्युपगच्छतामदोष इति चेन्न, तेषामपि कस्यचित् पदस्य व्यक्तिरेवार्थः कस्यचिदाकृतिरेव कस्यचिज्जातिरेवेत्येकांतोपगमात् पक्षत्रयोक्तदोषानुषक्तेः। किं च। संस्थानविशेषेण व्यज्यमानां जातिमाकृतिं वदतां कुतः संस्थानानां विशेष: कथन से द्रव्यत्व नाम का सामान्य भी संस्थान से अभिव्यक्त नहीं होता है। यह भी कह दिया गया है। किं च, गुणों में भी संस्थान विशेष का अभाव है अर्थात् गुणों में गुण नहीं रहते हैं और संस्थान मीमांसक मतानुसार चौबीसवाँ गुण हैं। इसी प्रकार आत्मत्वं, दिशात्व आदि बहुत सी जातियाँ भी संस्थान विशेष से अभिव्यक्त नहीं होती हैं-ऐसा जान लेना चाहिए। परन्तु अनेक गायों में रहने वाली गोत्व जाति सास्नाादि रचना विशेष के बिना शरीर मात्र के साथ युक्त नहीं होती है क्योंकि यदि गोत्व जाति सास्नादि रचना विशेष के बिना शरीर मात्र के साथ युक्तहोगी तो अश्व, गज आदि के शरीर के साथ भी गोत्व की अभिव्यक्ति होने का प्रसंग आयेगा। अत: विशेष अवयवों की रचना से जाति प्रगट होती है वह आकृति है। ऐसा होने पर मनुष्यादि विशेष रचनाओं से विशिष्ट मनुष्यत्व, राजत्व, पशुत्व गोत्व आदि सभी विशेष जातियाँ आकृति हो जाती हैं वे आकृतियाँ शब्द के वाच्य अर्थ हैं। इस प्रकार आकृतिवादी के द्वारा कथन कर लेने पर जैनाचार्य कहते हैं कि आकृतिवादी भी विचारशील पण्डित नहीं हैं क्योंकि लोहितत्व आदि जातियों का विशेष संस्थान से रहित लोहितादि गुण के द्वारा व्यवच्छेद हो जाता है अर्थात् गुणों में रहने वाली लोहित आदि जातियाँ आकार रहित होकर भी गुणों के द्वारा प्रगट हो जाती हैं। ____तथा पचति आदि क्रियाओं में रहने वाली समान जातियाँ भी संस्थान विशेष रहित पचन आदि कर्म से प्रगट हो जाती हैं। यदि संस्थान विशेषों से ही आकृति रूप जाति का प्रगट होना मानेंगे तो लोहितत्व भ्रमणत्व आदि जातियों के आकृति के अभाव का प्रसंग आयेगा। यदि आकृतिवादी सत्त्व, द्रव्यत्व, आत्मत्व आदि जातियों को आकृति रहित मानेंगे तो “आकृति ही शब्द का वाच्य अर्थ है" ऐसा एकान्त कैसे सिद्ध होगा। क्योंकि जाति, गुण और कर्म इन सबके भी पद का वाच्यार्थत्व सिद्ध है। परन्तु आकृतिवादी के मतानुसार जाति, गुण, कर्म में संस्थान विशेष नहीं हैं। अत: एकान्त से संस्थान विशेष से आविर्भूत जातिरूप आकृति ही शब्द का वाच्यार्थ है, यह कैसे कहा जा सकता है। गो, रक्त, घूमना आदि जाति गुण क्रिया रूप व्यक्तियाँ हैं। संस्थान विशेष से प्रगट होने वाली जाति रूप आकृतियाँ हैं और नित्य जातियाँ हैं।