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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 113 . स्वाभिधेयलोहितत्वाकृतेर्लोहितगुणे समवेतायास्तस्य च द्रव्ये समवेतत्वादाकृत्यधिष्ठान एव तत्समवेतसमवायाद्गुणव्यवहितेपि द्रव्ये लोहितप्रत्ययमुपपादयेत् , एवमन्यत्र द्रव्ये लोहितद्रव्यस्य संयुक्तत्वात् तत्र च लोहितगुणस्य समवेतत्वात् तत्र च लोहिताकृतेः समवायात् संयुक्तसमवेतसमवायांतरमुपजनयेत् / एवं तु वस्त्रद्वयवृते शुक्ले वस्त्रे संयुक्तसमवेतसमवायादिति यथा प्रतीतं लोके तथा गौरिति शब्दादपि स्वतो गोत्वरूपामाकृतिं कथयति तत्र प्रतिलब्धस्वरूपस्तदधिष्ठान एव तद्गोपिंडे गोप्रत्ययं करोत्यविभागेन तस्य तदावेशात् // एवं पचतिशब्दोधिश्रयणादिक्रियागतैः / सामान्यैः सममेकार्थसमवेतं प्रबोधयेत् // 37 // व्यापकं पचिसामान्यमधिश्रित्यादिकर्मणाम् / यथा भ्रमणसामान्यं भ्रमतीति ध्वनिर्जने // 38 // पचत्यादिशब्दः क्रियाप्रतिपादक एव नाकृतिविषय इति मा मंस्थाः स्वयमाकृत्यधिष्ठानस्य तस्य पचनादिक्रियाप्रत्ययहेतुत्वात्। पचतिशब्दो हि याः काश्चनाधिश्रयणादिक्रियास्तासां यानि प्रत्यर्थनियतान्यधिश्रयणत्वादिसामान्यानि तैः सहैकार्थे समवेतं यत्सर्वविषयं पचिसामान्यमभिव्यक्तं तत्प्रतिपादयति यथा भ्रमतिशब्दोऽनेककर्मविषयं भ्रमणसामान्यं लोके // ____इस प्रकार अन्य (दूसरे) द्रव्य में लोहित द्रव्य का संयुक्तपना होने से, और उसमें लोहित गुण का समवेत होने से तथा लोहित आकृति का समवाय होने से लोहित शब्द संयुक्त समवेत समवाय से द्रव्यान्तर में भी लोहित ज्ञान उत्पन्न करा देता है तथा जैसे दोनों ओर से रक्त वस्त्र से वेष्टित शुक्ल वस्त्र में भी, संयुक्त समवेत समवायसम्बन्ध से लोहित शब्द लोहित ज्ञान उत्पन्न करा देता है, ऐसी लोक प्रतीति होती है। उसी प्रकार गौ' यह शब्द भी स्वकीय आकृति को कहता है और गोरूपत्व आकृति में अपना स्वरूप लाभ करता हुआ 'गौ' शब्द व्यक्तिरूप गोपिण्ड में गो का ज्ञान करा देता है क्योंकि आकृति और व्यक्ति में अविभाग से प्रतिभास होता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि गुणों का कथन करने वाला ‘लोहित' शब्द तथा जाति को कहने वाला ‘गो शब्द' ये सभी शब्द आकृति को ही कहते हैं। इसी प्रकार क्रियावाची पचति शब्द अधिश्रिति (पचति क्रिया के आधार से होने वाली) क्लेदन, पचन आदि क्रियागत सामान्य के साथ एकार्थ समवाय सम्बन्ध से पचन सामान्य रूप आकृति का ज्ञान कराता है। जैसे भ्रमति शब्द लोक में भ्रमण करने वाले भ्रमण सामान्य का ज्ञान कराता है वैसे ही पचन क्रिया की व्याप्य, क्लेदन, अधिश्रिति आदि क्रियाओं में व्यापक रूप से रहने वाली पचन सामान्य रूप आकृति को पचति शब्द ज्ञान कराता है। अर्थात् क्रियावाची शब्द से भी आकृति का ही ज्ञान होता है॥३७-३८॥ पचति आदि शब्द क्रिया के ही प्रतिपादक हैं, आकृति के विषय के प्रतिपादक नहीं है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि पचन आदि क्रिया शब्दों के द्वारा स्वयं आकृति के अधिकरण हो रहे उस अर्थ के पचन आदि क्रिया का ज्ञान कराने की कारणता होती है। ___क्योंकि ‘पचति' शब्द जो कोई भी विक्लेदन, अधिश्रयण आदि क्रियाएँ हैं, उनके प्रत्येक क्रिया रूप अर्थ में नियमित होकर स्थित अधिश्रयणत्व, विक्लेदनत्व आदि सामान्य हैं, उनके साथ एक अर्थ में
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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