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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 112 लोहितप्रत्ययं रक्तवस्त्रद्वयवृतेपि च / तथा गौरिति शब्दोपि कथयत्याकृतिं स्वतः // 35 // गोत्वरूपात्तदावेशात्तदधिष्ठान एव तु / तदाश्रये च गोपिंडे गोबुद्धिं कुरुतेंजसा // 36 / / कस्मात् पुनर्गुणे द्रव्ये द्रव्यांतरे च प्रत्ययं कुर्वन्नाकृतेरभिधायकः शब्द इति न चोद्यं, लोहितशब्दो ह्यांतरनिरपेक्षो गुणसामान्ये स्वरूपं प्रतिलब्धस्वरूप: तदधिष्ठानो यदा न गुणस्य लोहितस्य नाप्यलोहितत्वेन व्यावशात्प्रत्यायनं करोति तदा विभागाभावादाकृत्यधिष्ठान एव / स तु गुणे प्रत्ययमादधतीत्याकृतिमभिधत्ते / यथोपाश्रयविशेषात् स्फटिकमणिं तद्गुणमुपलभ्यमानमध्यक्षं स्फटिकमणेरेव प्रकाशकं तदधिष्ठानस्य परोपहितगुणव्यावेशादविभागेन तद्गुणत्वप्रत्ययजननात् / एवं द्रव्यमभिदधानो लोहितशब्दः की आकृति (रचना विशेष) को कहता है। तथा उस गोत्व रूप आकृति के आवेश से उस गोत्व के आधारभूत गो के अवयवों में गो का ज्ञान करा देता है / तथा गौ के अवयवों के संयोगी वा अवयवों के आधारभूत पिण्डरूप गो व्यक्ति में शीघ्र ही गो का ज्ञान करा देता है अर्थात् गो शब्द साक्षात् गो की आकृति को कहता है और परम्परा से गो के अवयव गौ और अन्य गायों का भी ज्ञान करा देते हैं॥३२-३३-३४३५-३६॥ आकृतिवादी कहते हैं कि “गुण, द्रव्य और द्रव्यान्तरों में स्वजन्य ज्ञान को करने वाले शब्द को आकृति का ही ज्ञान कराने वाला क्यों कहते हैं, गुण आदि का ज्ञान कराने वाले क्यों नहीं कहते हैं" ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि रक्त शब्द अन्य अर्थों की अपेक्षा न करके सामान्य रूप से रक्तगुण में अपने स्वरूप का लक्षण लाभ करता हुआ गुण सामान्य का अवलम्बन लेकर प्रतिष्ठित है। जब वह लोहित शब्द अलोहित के आवेश से निषिद्ध होकर लोहित गुण का ज्ञान नहीं कराता है, तब गुण-गुणी के विभाग का अभाव होने से वह लोहित शब्द आकृति में ही अधिष्ठित रहता है। वही लोहित शब्द रक्त गुण का ज्ञान करता हुआ लोहित (रक्त) की आकृति को कह देता है जैसे उपाधि विशेष से युक्त स्फटिक मणि को जानने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान उस उपाधि के गुणों को जानता हुआ भी स्फटिक प्रकाशक होता है क्योंकि उस गुण के आक्रमण का अन्य उपाधियुक्त गुण के आवेश से विभाग न करके गुणत्व के ज्ञान का जनक होता है अर्थात् जिस प्रकार जपा पुष्प की लालिमा स्फटिक मणि में आरोपित कर ली जाती है, इसी प्रकार लोहित शब्द भी परम्परा से द्रव्य का संकेत कर रहा है। तथा लोहित शब्द का साक्षात् अपना वाच्य अर्थ लोहित रूप आकृति है और उस आकृति की लोहित गुण में समवाय सम्बन्ध से वर्त्तना होती है, अत: लोहित गुण का द्रव्य में समवाय सम्बन्ध है। जो समवाय सम्बन्ध से द्रव्य में रहता है, वह समवाय समवेत कहलाता है। अत: परम्परा से गुण के व्यवधानयुक्तद्रव्य में भी लोहित शब्द लोहित ज्ञान को उत्पन्न करा देता है क्योंकि आकृति का आधार समवेत समवाय नामक परम्परा सम्बन्ध से द्रव्य ही है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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