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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 111 भिन्ने तेनैवाभिन्ने इत्यपि विरुद्धं, क्रमेण जातिव्यक्त्योः परस्परानपेक्षयोः पदार्थत्वे पक्षद्वयोक्तदोषासक्तिः / क्वचिज्जातिशब्दात् प्रतीत्य लक्षणया व्यक्ति प्रतिपद्यते, क्वचिद्व्यक्तिं प्रतीत्य जातिमिति हि जातिव्यक्तिपदार्थवादिपक्षादेवासकृज्जातिव्यक्त्यात्मवस्तुनः पदार्थत्वे किमनेन स्याद्वादविद्वेषेण / केचिदत्राकृतिपदार्थवादिनः प्राहुः॥ लोहिताकृतिमाचष्टे यथोक्तो लोहितध्वनिः / लोहिताकृत्यधिष्ठाने विभागाल्लोहिते गुणे // 32 // तदावेशात्तथा तत्र प्रत्ययस्य समुद्भवात् / द्रव्ये च समवायेन प्रसूयेत तदाश्रये // 33 // गुणे समाश्रितत्वेन समवायात्तदाकृतेः / संयुक्तसमवेते च द्रव्येन्यत्रोपपादयेत् // 34 // परस्पर अनपेक्ष जाति और व्यक्ति के क्रम से पद का वाच्य अर्थ होता है, ऐसा मानने पर दोनों पक्षों में कहे गये दोषों का प्रसंग आता है। (अर्थात् शब्द के द्वारा युगपत् और क्रम से उनका ज्ञान नहीं हो सकता)। कहीं तो शब्द के द्वारा जाति को जानकर श्रोता तथानुपपत्ति या अन्वयानुपपत्ति का प्रकरण होने पर लक्षणा के द्वारा व्यक्ति को जानता है और कहीं परस्पर की अपेक्षा रखने वाली व्यक्ति का निर्णय कर उसका विशेषण रूप जाति को जान लेता है। इस प्रकार जाति और व्यक्ति को पद का वाच्य अर्थ कहने वाले वादी के पक्ष से बार-बार जाति व्यक्ति स्वरूप वस्तु को ही पद का वाच्यअर्थपना आता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो स्याद्वाद के साथ द्वेष करने से क्या प्रयोजन है। अर्थात् सदृश परिणामरूप जाति और विशेष परिणामों के आधार पर व्यक्ति, इन दोनों से युगपत् तदात्मक वस्तु को पद का वाच्य अर्थ स्याद्वाद की शरण लेने से ही बन सकता है। स्याद्वाद मत में ही वस्तु जाति और व्यक्ति का तदात्मक पिण्ड है। . कोई पदार्थ की आकृति (आकार) को ही पद का वाच्य अर्थ कहते हैं उनका मन्तव्य कहते हैं : अवयवों की रचना विशेष वा संस्थान विशेष को आकृति कहते हैं जैसे वक्ता के द्वारा कथित लोहित (रक्त) शब्द रक्त के संस्थान विशेष आकृति को कह देता है। गुण और आकृति का विभाग करने से लोहित आकृति के आधारभूत उस लोहित गुण में भी उस आकृति के आवेश से लोहित गुण का ज्ञान हो जाता है तथा समवाय सम्बन्ध से गुण के आधारभूत द्रव्य में भी लोहित का ज्ञान हो जाता हैं। रक्त (यह शब्द) दो वस्त्रों से घिरे हुए शुक्ल वस्त्र में भी रक्त ज्ञान उत्पन्न कर देता है क्योंकि समवाय सम्बन्ध से वह आकृति गुणों में आश्रित है तथा संयुक्त समवाय सम्बन्ध से, वह आकृति दूसरे द्रव्यों में स्थित होकर भी रक्त और वस्त्र इन दोनों में लोहित ज्ञान को युक्ति से उत्पन्न करा देती है अर्थात् रक्त शब्द रक्त की रचना विशेष को कहता है। वह रचना गुण में होती है और गुण द्रव्य में रहते हैं द्रव्य दूसरे द्रव्य से संयुक्त रहता है। जैसे रक्त आकृति है, वह लाल गुण में रहता है, गुण किसी द्रव्य के आश्रय है और वह द्रव्य साड़ी आदि के आश्रित है। इस परम्परा से जैसे गुण वाचक लोहित शब्द गुण द्रव्य और द्रव्यान्तर को जैसे प्रतिपादन करता है वैसे ही जाति वाचक गो शब्द भी स्वत: अपने सींग, सास्ना आदि अवयवों
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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