________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 109 पारंपर्येण चेच्छब्दात्सा वृत्तिः करणान्न किम् / ततो न शब्दतो वृत्तिरेषां स्याजातिवादिवत् // 30 // प्रतीतायामपि शब्दाद्व्यक्तावेकत्र यावत् स्वतस्तज्जाति प्रतीता न तावत्तद्विशिष्टां व्यक्तिं प्रतीत्य कश्चित् प्रवर्तते इति / जातिप्रत्ययादेव प्रवृत्तिसंभवे शब्दात् सा प्रवृत्तिरिति विरुद्धं, जातिप्रत्ययस्य शब्देनाजन्यमानत्वात् / शब्दाद्व्यक्तिप्रतीतिभावे तद्विशेषणभूताया जातेः संप्रत्ययात्तत एव जातिर्गम्यत एवेति चेत् , कथमेवं व्यक्तिवज्जातिरपि शब्दार्थो न स्यात्? तस्याः शब्दतोऽश्रूयमाणत्वादिति चेत् , किमिदानीं शब्दतो गम्यमानोर्थः शब्दस्याविषयः / प्रधानभावेनाविषय एवेति चेन्न, गम्यमानस्यापि प्रधानभावदर्शनात् यथा गुडशब्दाद्गम्यमानं माधुर्यं पित्तोपशमनप्रकरणे / न चात्र जातेरप्रधानत्वमुचितं तत्प्रतीतिमंतरेण प्रवृत्त्यर्थिन: ___ यदि वह प्रवृत्ति परम्परा से शब्द से उत्पन्न हुई कही जावेगी तो परम्परा से श्रोत्र इन्द्रिय से वह प्रवृत्ति होना क्यों नहीं मान लिया जाता है अतः केवल जाति को शब्द का वाच्य कहने वालों के समान इन व्यक्ति वादियों के भी शब्द के द्वारा शब्द बोध प्रक्रिया से पदार्थों में प्रवृत्ति होना घटित नहीं होता है॥३०॥ शब्द के द्वारा एक व्यक्ति की प्रतीति हो जाने पर भी जब तक उसमें रहने वाली जाति की स्वतः प्रतीति नहीं होती है, तब तक उस जाति से विशिष्ट व्यक्ति की प्रतीति करके कोई भी प्राणी प्रवृत्ति नहीं करता है इसलिए जाति ज्ञान से जाति विशिष्ट व्यक्ति का निर्णय करके जाति ज्ञान से प्रवृत्ति संभव होने पर, 'वह प्रवृत्ति शब्द से हुई है' ऐसा मानना विरुद्ध है क्योंकि व्यक्तिवादी के मतानुसार जाति का ज्ञान शब्दजन्य नहीं ____व्यक्तिवादी कहता है कि शब्द से व्यक्ति का ज्ञान हो जाने पर व्यक्ति की विशेषण भूत जाति का ज्ञान होता है। जैनाचार्य कहते है तब तो व्यक्ति के समान जाति भी शब्द का वाच्य अर्थ क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा। यदि कहो कि जाति का शब्द के द्वारा अश्रूयमान (कर्ण का विषय नहीं) होने से श्रोत्रइन्द्रिय द्वारा बोध नहीं होता। (अर्थात् व्यक्ति के विशेषण से ही जाति की ज्ञप्ति होती है स्वत: नहीं ) तब तो इस समय शब्द के द्वारा अर्थापत्ति से ज्ञात पदार्थ शब्द का विषय नहीं हो सकता। _ अर्थात् शब्द के द्वारा गम्यमान और उच्यमान दोनों ही अर्थ शब्द के वाच्य अर्थ हैं जैसे गृह इस शब्द का अर्थ घर और घर का कोना दोनों होते हैं। व्यक्ति वादी कहता है कि शब्द के द्वारा कथित अर्थ तो प्रधान रूप से शब्द का विषय है-परन्तु अर्थापत्ति से लिया गया अर्थ प्रधान रूप से शब्द का विषय नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि गम्यमान (शब्द के द्वारा जिसकी ज्ञप्ति होती है उस पदार्थ) की भी प्रधानता देखी जाती है। जैसे पित्त दोष के उपशमन के प्रकरण में गुड़ शब्द के द्वारा गम्यमान माधुर्य प्रधान हो जाता है। (अर्थात् माधुर्य का उच्चारण नहीं किया गया है तथापि गुड़ शब्द से गम्य होकर माधुर्य प्रधान हो जाता है) अतः व्यक्ति को प्रधान और जाति को अप्रधान कहना उचित नहीं है क्योंकि जाति की प्रतीति (निर्णय) किये बिना शब्द के द्वारा घटादिक में प्रवृत्ति करने के अभिलाषी पुरुष की प्रवृत्ति होना शक्य नहीं है। यदि व्यक्तिवादी