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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *108 - प्रा प्रतीतया पुनर्जात्या विशष्टां व्यक्तिमीहिताम् / यां यां पश्यति तत्रायं प्रवर्तेतार्थसिद्धये // 27 // तथा च सकल: शाब्दव्यवहारः प्रसिद्ध्यति / प्रतीतेर्बाधशून्यत्वादित्येके संप्रचक्षते // 28 // न प्रधानं शुद्धद्रव्यं शब्दतत्त्वमात्मतत्त्वं वा द्वयं पदार्थः प्रतीतिबाधितत्वात् / नापि भेदवादिनां नानाव्यक्तिषु नित्यासु वाशब्दस्य प्रवृत्तिः तत्र संकेतकरणासंभवादिदोषावतारात् / किं तर्हि ? व्यक्तावेकस्यां शब्दः प्रवर्तते शृंगग्राहिकया परोपदेशाल्लिंगदर्शनाद्वा तस्यां ततो निर्णीतायां तद्विशेषणभूतायां जातौ स्वत एव निश्चयो यथा गुडादिशब्दाद्गुडादेर्निणये तद्विशेषणे माधुर्यादौ तथाभ्यासादिवशाल्लोके संप्रत्ययात् / ततः स्वनिश्चतया जात्या विशिष्टामभिप्रेतां यां व्यक्तिं पश्यति तत्र तत्रेष्टसिद्धये प्रवर्तते / तावता च सकलशाब्दव्यवहार: सिद्ध्यति बाधकाभावादिति व्यक्तिपदार्थवादिनः प्राहुः॥ तदप्यसंगतं जातिप्रतीतेर्वृत्तिसंभवे। शब्देनाजन्यमानाया: शब्दवृत्तिविरोधतः // 29 // को देखता है, उन-उन व्यक्तियों में यह लोक (जीव) अर्थ (प्रयोजन) की सिद्धि के लिए प्रवृत्ति करता है॥२७॥ तथा च (इस प्रकार) शब्द जन्य सम्पूर्ण लोक व्यवहार प्रसिद्ध होता है / इस समीचीन प्रवृत्ति के बाधक प्रमाण का अभाव है। इस प्रकार वैशेषिक आदि कोई कहते हैं॥२८॥ प्रधान (प्रकृति), शुद्ध द्रव्य, शब्द तत्त्व और अद्वैत आत्म तत्त्व ये पद के वाच्य अर्थ नहीं हैं। क्योंकि इस कथन में प्रमाण सिद्ध प्रतीतियाँ बाधित होती हैं अर्थात्-इस कथन में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से बाधा आती है। तथा भेद का कथन करने वाले भेदवादियों के (द्वैतवादियों के) यहाँ मानी गयी नित्य और अनेक व्यक्तियों में शब्दों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और उन नित्य व्यक्तियों में संकेत करने को असंभवत्व, अनन्वय, प्रवृत्त्यभाव आदि अनेक दोषों का आविर्भाव होता है। व्यक्तिवादी और जातिवादी दोनों का निराकरण ___शंका : फिर पद का वाच्य अर्थ क्या है ? समाधान : शृंग ग्राहिका न्याय से (अंगुली के द्वारा निर्देश के समान अर्थात् अंगुलि का निर्देश एक व्यक्ति की तरफ ही होता है अतः) पहले शब्द एक ही व्यक्ति में प्रवृत्ति करता है और परोपदेश से वा हेतु के दृष्टिगोचर होने से उस व्यक्ति की निर्णय हो जाने पर व्यक्ति की विशेषण भूत जाति, स्वयमेव निर्णीत हो जाती है, जैसे गुड़ादि शब्द से गुड़ आदि का निर्णय हो जाने पर उनके विशेषण-भूत माधुर्य आदि में उस प्रकार के अभ्यास से लोक में ज्ञान हो ही जाता है, इसलिए स्वयं निश्चित जाति से विशिष्ट जिस व्यक्ति को मानव देखता है, उस-उसमें अपनी विशिष्ट सिद्धि के लिए प्रवृत्ति करता है। उतने (उस प्रवृत्ति) से ही सर्व शाब्द जन्य व्यवहार की सिद्धि हो जाती है, इसमें बाधक प्रमाण का अभाव है इस प्रकार व्यक्ति को पद का वाच्य अर्थ कहने वाले कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार व्यक्ति पदार्थ वादी का कहना सुसंगत नहीं है, क्योंकि शब्द के द्वारा अजन्यमान जाति की प्रतीति से जातिमान पदार्थ में प्रवृत्ति मान लेने पर शब्द की वृत्ति से विरोध आता है अर्थात् जाति से उत्पन्न वृत्ति को शब्द से उत्पन्न कहना विरुद्ध है॥२९॥
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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