________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 107 अन्यापोहस्यान्यार्थापेक्षत्वात् स्वरूपविधेः परानपेक्षत्वादर्थभेदगतेः। परमात्मन्यद्वये सति ततोन्यस्यार्थस्याभावात् कथं तदपेक्षयान्यापोह इति चेत् न। परपरिकल्पितस्यावश्याभ्युगमनीयत्वात् / सोप्यविद्यात्मक एवेति चेत् , किमविद्यातोपोहस्तदपेक्षो नेष्ट: ? सोप्यविद्यात्मक एवेति चेत् तर्हि तत्त्वतो नाविद्यातोपोहः परमात्मन इति कुतोविद्यात्वं येन स एव पदस्यार्थो नित्यः प्रतिष्ठेत / सत्यपि च परमात्मनि संवेदनात्मन्यद्वये कथं शब्दविषयत्वं ? स्वसंवेदनादेव तस्य प्रसिद्धस्तत्प्रतिपत्तये शब्दवैयर्थ्यात् / ततो मिथ्याप्रवाद एवायं नित्यं द्रव्यं पदार्थ इति॥ व्यक्तावेकत्र शब्देन निर्णीतायां कथंचन / तद्विशेषणभूताया जातेः संप्रत्यय: स्वतः॥२५॥ गुडशब्दाद्यथा ज्ञाने गुडे माधुर्यनिर्णयः / स्वतः प्रतीयते लोके प्रोक्तो निंबे च तिक्तता // 26 // की सिद्धि नहीं हो सकती, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि अन्यापोह (निषेध) और स्वरूप की विधि में अन्तर है। अन्यापोह में अन्य अर्थों की अपेक्षा रहती है और स्वरूप की विधि में पर पदार्थों की अपेक्षा नहीं रहती है। यह इन दोनों में अन्तर है। इनमें भिन्न-भिन्न अर्थ ज्ञात होता है। परम ब्रह्म तत्त्व के सर्वथा एक (अद्वैत) होने पर उससे अन्य पदार्थों का अभाव हो जाने से अन्य पदार्थों की अपेक्षा रखने वाला अन्यापोह सिद्ध कैसे हो सकता है ऐसा पुरुषाद्वैत वादी का कहना भी सुसंगत नहीं है क्योंकि अन्य दर्शनों के द्वारा कल्पित पदार्थों को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। उसका निषेध नहीं करना चाहिए। यदि कहो कि परम ब्रह्म से भिन्न अन्य पदार्थ कल्पित होने से अविद्या स्वरूप हैं वास्तविक नहीं है तो क्या अविद्या से अपोह (व्यावृत्ति) करना अन्य पदार्थों की अपेक्षा युक्त आपने इष्ट नहीं किया है? अर्थात् अन्य पदार्थों का अपोह आपको इष्ट ही है। यदि कहो कि परम ब्रह्म से अविद्या का अपोह करना अविद्यात्मक ही है तब तो वास्तविक रूप द्वारा परम ब्रह्म अविद्या से पृथक् नहीं हो सकता, अतः ब्रह्म को विद्यापन (सम्यग्ज्ञानत्व) कैसे हो सकता है अर्थात् अविद्या से रहितपना भी यदि अविद्या ही है तो वस्तुत: ब्रह्म अविद्या से रहित नहीं है। जिससे कि. वह नित्य ब्रह्म ही पद का वाच्य अर्थ प्रतिष्ठित हो सके। ____संवेदनात्मक परम ब्रह्म को अद्वैत मान लेने पर वह परमब्रह्म शब्द जन्य ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है। क्योंकि पुरुषाद्वैत मतानुसार परम ब्रह्म की संवेदन प्रत्यक्ष से ही सिद्धि हो जाती है अत: परम ब्रह्म की प्रतिपत्ति के लिए शब्द का प्रयोग करना व्यर्थ है। इसलिए पद का वाच्य अर्थ नित्य ही, है ऐसा कथन करना मिथ्या प्रवाद है। क्योंकि नित्य, अनित्य, विधि, निषेध, द्वैत, अद्वैत शब्द का वाच्य अर्थ है। शब्द के द्वारा किसी भी प्रकार एक व्यक्ति के निर्णीत हो जाने पर उस व्यक्ति की विशेषण भूत हो रही जाति का स्वत: ज्ञान हो ही जाता है। जैसे गुड़ शब्द का ज्ञान हो जाने पर गुड़ में स्थित माधुर्य का निर्णय हो जाता है। तथा लोक में नीम की ज्ञप्ति होने पर उसमें स्थित तिक्तरस का ज्ञान स्वयमेव हो जाता है॥२५-२६॥ पुन: व्यक्ति के द्वारा निर्णीत प्रतीति में आगत जाति के द्वारा लोक जिस-जिस अभीष्ट व्यक्ति