________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 106 स एव परमब्रह्मणोधिगमोपायस्तत्स्वभावो वा न पुनस्त इति कथं प्रतिपद्येमहि / अत्रापरः प्राह / पुरुषाद्वैतमेवास्तु पदार्थः प्रधानशब्दब्रह्मादेस्तत्स्वभावत्वात्तस्यैव विधिरूपस्य नित्यद्रव्यत्वादिति / तदप्यसारं / तदन्यापोहस्य पदार्थत्वसिद्धेः / शब्दो हि ब्रह्म ब्रुवाणः स्वप्रतिपक्षादपोढं ब्रूयात् / किं वान्यथा प्रथमपक्षे विधिप्रतिषेधात्मनो वस्तुनः पदार्थत्वसिद्धिः द्वितीयपक्षेपि सैव, स्वप्रतिपक्षादव्यावृतस्य परमात्मनः शब्देनाभिधानात् / तद्विधिरेवान्यनिषेध इति चेत् , तदन्यप्रतिषेध एव तद्विधिरस्तु / तथा चान्यापोह एव पदार्थ: स्यात् स्वरूपस्य विधेस्तदपोह इति नाममात्रभेदादर्थो न भिद्यते एव यतोनिष्टसिद्धिः स्यादिति चेत् / न / भावार्थ : जब शब्द और रूपादि गुणों में कोई विशेषता ही नहीं है तो क्या कारण है कि शब्दाद्वैत को स्वीकार किया जावे और रूपाद्वैत और रसाद्वैत को स्वीकार नहीं किया जावे। यहाँ दूसरा विशिष्टाद्वैतवादी कहता है : पुरुषाद्वैत (ब्रह्माद्वैत) ही वास्तविक पदार्थ है। प्रधान, शब्द, ब्रह्म, संवेदन आदि सर्व उसी एक पुरुष (ब्रह्म) का स्वभाव (पर्याय) हैं। नित्य द्रव्य होने से, पुरुषाद्वैत ही विधि रूप होकर पद का वाच्य अर्थ होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि-ऐसा कहना सार रहित है, निस्सार है। क्योंकि इस प्रकार कहने पर तो उनके द्वारा स्वीकृत अन्यापोह को भी पदार्थत्व की सिद्धि हो जाती है। शब्दाद्वैत के द्वारा स्वीकृत “शब्द ब्रह्म वाचक है" वा जो शब्द को ब्रह्म कह रहा है वह अपने (ब्रह्म के) प्रतिपक्ष (विरुद्ध पदार्थों से रहित केवल ब्रह्म को कहता है? अथवा अन्यथा (बह्म से विरुद्ध पदार्थ का निषेध नहीं करते हुए) उस ब्रह्म का कथन करता है? प्रथम पक्ष को स्वीकार करने पर तो विधि और प्रतिषेध स्वरूप वस्तु के पदार्थत्व की सिद्धि होती है अर्थात् ब्रह्माद्वैत की सिद्धि न होकर विधि और प्रतिषेध रूप द्वैत की सिद्धि हो जाती है क्योंकि शब्द ब्रह्म से अतिरिक्त पदार्थ का निषेध करता है और ब्रह्म का विधान करता है। दूसरा पक्ष स्वीकार करने पर भी अद्वैत की सिद्धि न होकर द्वैत की सिद्धि होती है। क्योंकि अपने पक्ष से अपृथक् परमात्मा का शब्द के द्वारा निरूपण किया गया है अर्थात् शब्द के द्वारा विधि और निषेध का कथन किया जाता है / शब्द कभी भी विधि और निषेध में एक का कथन नहीं करता है। परम ब्रह्म की विधि ही अन्य का निषेध है- ऐसा कहने पर तो अन्य का प्रतिषेध ही विधि का कथन होगा अर्थात् दुःख का अभाव सुख और संसार का अभाव मोक्ष सिद्ध होता है अतः अन्यापोह ही पदार्थ सिद्ध होगा अर्थात् अन्यापोह भी पद का वाच्य अर्थ हो जायेगा। ब्रह्म के स्वरूप की विधि का ही नाम है- अन्य पदार्थ का अपोह, केवल विधि और अपोह में नाम मात्र का भेद है अर्थ भेद नहीं है- जिससे द्वैत या निषेध पदार्थ की अनिष्ट सिद्धि हो सकती हो, अर्थात् नहीं हो सकती अर्थात् विधि का कथन करना या निषेध का कथन यह नाम मात्र भेद है अतः शब्द से द्वैत