________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 105 शब्दस्य प्रतिपत्त्युपायत्वे रूपादीनां सुप्रतिपत्त्युपायतास्तु / न हि धूमादिरूपादीनां विज्ञानात् पावकादिप्रत्तिपत्तिर्जनस्याप्रसिद्धाः / शब्दः साक्षात्परप्रतिपत्त्युपायस्तस्य प्रतिभासादभिन्नत्वादिति चेत् , तत एव रूपादयः साक्षात्स्वप्रतिपत्तिहेतवः संतु। एवं च यथा श्रोत्रप्रतिभासादभिन्नः शब्दस्तत्समानाधिकरणतया संवेदनाच्छ्रोत्रप्रतिभासश्च परमब्रह्म तत्त्वविकल्पाच्छब्दात् सोपि च ब्रह्मतत्त्वात्संवेदनमात्रलक्षणादव्यभिचारिस्वरूपादिति / ततः परमब्रह्मसिद्धिः / तथा रूपादयः स्वप्रतिभासादभिन्नाः, सोऽपि प्रतिभासमात्रविकल्पाल्लिंगात्, सोऽपि च परमात्मनः स्वसंवेदनमात्रलक्षणादिति न शब्दाद्रूपादीनां कंचन विशेषमुत्पश्यामः। सर्वथा तमपश्यन्तश्च शब्द एव स्वरूपप्रकाशनो न तु रूपादयः, शब्द को परम्परा से ज्ञान के कारणत्व को स्वीकार करने पर रूप आदि के भी परम्परा से ज्ञान के प्रति उपायता प्रतीत होती है अर्थात् जैसे परम्परा से शब्द प्रमिति का उपाय है वैसे रूपादि भी परम्परा से प्रतीति के उपाय हैं ऐसा मानना पड़ेगा क्योंकि धूमादि के रूपादि के ज्ञान से अग्नि आदि के समीचीन ज्ञान की प्रतिपत्ति मनुष्यों को प्रसिद्ध नहीं है, ऐसा नहीं हैं। अर्थात् धूम के रूप को देखकर परम्परा से अग्नि का ज्ञान होता ही है। अग्नि का साक्षात् कारण धूम का ज्ञान है और परम्परा से रूप रसादि से युक्त धूम कारण ___यदि कहो कि शब्द तो अव्यवहित रूप से अन्य पदार्थों की प्रतिपत्ति का उपाय है क्योंकि वह शब्द तत्त्व ज्ञान प्रकाश से अभिन्न पदार्थ है तो हम जैन भी कह सकते हैं कि शब्द के समान प्रतिभास से अभिन्नहोने के कारण रूप रस आदि गुण भी साक्षात् (अव्यवहित) रूप से अपनी प्रतिपत्ति के कारण हो सकते हैं। तथा इस प्रकार जैसे शब्दाद्वैत मत में, श्रोत्र जन्य श्रावण प्रत्यक्ष से शब्द अभिन्न है क्योंकि उस प्रतिभास के समान अधिकरण के द्वारा शब्द का संवेदन होता है। (अर्थात् “शब्दः प्रतिभासते' इसमें शब्द का प्रतिभासन क्रिया के साथ समान अधिकरण है। प्रतिभास क्रिया शब्द में रहती है)" इसलिए श्रोत्र प्रतिभास और शब्द एक ही तत्त्व है, श्रोत्र प्रतिभास परमब्रह्म रूप है, तथा तत्त्व विकल्प रूप शब्द से, केवल संवेदन मात्र लक्षण तथा व्यभिचार रहित स्वभाव को धारण करने वाले ब्रह्म तत्त्व से शब्द प्रतिभास अभिन्न अतः अद्वैतवादी जैसे शब्द को परम ब्रह्म सिद्ध करते हैं, वैसे ही रूप, रस आदिक तत्त्व भी अपने अपने प्रतिभास से अभिन्न है अर्थात् रूप का प्रतिभास होता है, रस का प्रतिभास होता है, ऐसी प्रतीति होती है अत: रूप से रूप का प्रतिभास अभिन्न है। रूप, रस आदि का प्रतिभास सामान्य प्रतिभास के विकल्प स्वरूप लिंग (हेतु) से अभिन्न है और वह हेतु सामान्य संवेदन रूप परमात्मा से अभिन्न है / इस प्रकार शब्द से रूप आदिक में कोई विशेष अन्तर हमको दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। इन दोनों में कोई विशेष दृष्टिगोचर नहीं होने पर भी हम कैसे जान लें कि शब्द ही अपने स्वरूप के प्रकाशक हैं, रूपादिक नहीं तथा शब्द ही परम ब्रह्म के स्वरूप के प्रकाशन करने के उपाय हैं-रूपादि परम ब्रह्म के प्रकाशन के उपाय नहीं हैं। वा शब्द ही परम ब्रह्म का स्वभाव है, रूपादिक गुण परम ब्रह्म का स्वभाव नहीं हैं।