________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 104 प्रत्यक्ष एवार्थ:' प्रत्ययैर्निश्चीयत इत्यभ्युपगमाच्च / ननु च रूपादयः शब्दान्नार्थान्तरं तेषां तद्विवर्तत्वात् / ततो न ते गुरुणोपदिश्यते येन विद्यानुकूलाः स्युरिति चेत् , तर्हि शब्दोपि परमब्रह्मणो नान्य इति कथं गुरुणोपदेश्यः। ततो भेदेन प्रकल्प्य शब्दं गुरुरुपदिशतीति चेत् , रूपादीनपि तथोपदिशतु / तथा च शब्दाद्वैतमुपायतत्त्वं परमब्रह्मणो न पुना रूपाद्वैतं रसाद्वैतादि चेति ब्रुवाणो न प्रेक्षावान् / ननु च लोके शब्दस्य परप्रतिपादनोपायत्वेन सुप्रतीतत्वात् सुघटस्तस्य गुरूपदेशो न तु रूपादीनामिति चेत् न, तेषामपि स्वप्रतिपत्त्युपायतया हि प्रतीतत्वात्। तद्विज्ञानं स्वप्रतिपत्त्युपायो न त एवेति चेत् तर्हि शब्दज्ञानं परस्य प्रतिपत्त्युपायो न शब्द इति समानं / परंपरया शाब्द बोध है और ‘इन्द्र' इन अक्षरों को सुन लेना श्रावण प्रत्यक्ष मतिज्ञान है। शब्दाद्वैतवादी शाब्द ज्ञान को तो शब्द से अन्वित मानते हैं परन्तु श्रावण प्रत्यक्ष को शब्द से अन्वित नहीं मानते हैं। किं च, स्वकीय-स्वकीय वाचक शब्द विशेष से प्रत्यक्ष अर्थ ही उन ज्ञानों के द्वारा निश्चित किये जाते हैं, ऐसा शब्दाद्वैत वादियों ने स्वीकार किया है। (अत: रूपादिक को शब्द का विषय न मानने पर शब्दाद्वैतवादी के सिद्धान्त का व्याघात होता है।) शब्दाद्वैतवादी का कथन है कि- रूपादिगुण शब्द तत्त्व से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि वे रूपादि शब्द ब्रह्म की पर्याय हैं इसलिए रूप आदिक गुरु के द्वारा उपदिष्ट नहीं किये जाते हैं जिससे वे विद्या के अनुकूल हो सकते हैं अर्थात् रूपादिक गुरु के द्वारा अनिर्दिश्य होने से विद्यानुकूल नहीं होते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द तत्त्व भी परम ब्रह्म से भिन्न नहीं है अपितु परम ब्रह्म की पर्याय है, अतः शब्द तत्त्व गुरु के द्वारा निर्दिष्ट कैसे हो सकता है? यदि शब्दाद्वैत वादी कहे कि परम ब्रह्म से अभिन्न भी शब्द की भेद कल्पना करके गुरु उपदेश देते हैं, तब तो रूपादिक का भी परमं ब्रह्म से भेद कल्पना करके गुरुदेव उपदेश दे सकते हैं। (इसमें क्या विरोध है)। तथा च (भेद कल्पना करके रूपादिक का उपदेश देने पर) शब्दाद्वैत ही परम ब्रह्म के जानने का उपाय हैं। रूपाद्वैत, रसाद्वैत आदि परमब्रह्म के जानने के लिए उपाय तत्त्व नहीं हैं-ऐसा कहने वाले ज्ञानवान नहीं हैं। लोक में दूसरों के प्रति पदार्थों के प्रतिपादन का उपाय होने से शब्द की प्रतीति हो रही है अत: शब्द गुरु के द्वारा उपदिष्ट है- परन्तु रूपादिक दूसरों के प्रति पदार्थों के प्रतिपादन का उपाय नहीं होने से रूपादिकों के गुरु के द्वारा उपदिष्ट होना घटित नहीं होता है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है-क्योंकि उन रूपादिक के भी अपनी प्रतिपत्ति (ज्ञान) के उपायत्व की प्रतीति होती है अर्थात् रूपादिक भी अपने ज्ञान कराने के कारण तो हैं ही। यदि कहो कि रूपादिक का ज्ञान स्वकीय रूप आदि की प्रतिपत्ति के कारण है-परन्तु स्वयं रूपादिक रूप ज्ञान के कारण नहीं हैं- तब तो शब्दज्ञान दूसरे के प्रति पदार्थों का ज्ञान कराने में कारण है स्वयं शब्द ज्ञान के कारण नहीं है, ऐसा भी हम कह सकते हैं। क्योंकि शब्द और रूप दोनों समान ही हैं- इनमें कोई विशेषता नहीं है। 1. स्वाभिधानविशेषापेक्षः एवार्थ-इति पाठान्तर