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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 101 प्रकाशकाः शब्दाः सत्या नाम निर्विषयत्वात् / ततः सविषयत्वं शब्दस्येच्छता स्वरूपमात्रविषयत्वमेषितव्यं, तस्य तत्राव्यभिचारात् / जात्यादिशब्दानां तु जात्याद्यभावेपि भावाद्व्यभिचारदर्शनात् / न हि गौरश्व इत्यादयः शब्दा गोत्वाश्वत्वादिजात्यभावेपि वाहकादौ न प्रवर्तन्ते / तत्रोपचारात् प्रवर्तन्त इति चेन्नापरागतयोपि यत्र क्वचन तेषां प्रवर्तनात् / तथा द्रव्यशब्दा दंडीविषाणीत्यादयो गुणशब्दाः शुक्लादयश्चरत्यादयश्च क्रियाशब्दाः द्रव्यादिव्यभिचारिणोभ्यूह्याः / सन्मानं न व्यभिचरंतीति चेत् न, असत्यपि सत्ताभिधायिनां शब्दानां कहता है कि-स्वकीय वाच्य विषय से रहित होने से अवस्तु रूप उपाधियोंके प्रकाशक शब्द सत्य नहीं हो सकते। इसलिए शब्द को सविषयत्व चाहने वाले विद्वानों को शब्द का वाच्य विषय केवल शब्द का स्वरूप ही इष्ट करना चाहिए। उस शब्द का उस अपने स्वरूप के प्रतिपादन करने में व्यभिचार नहीं आता है अर्थात् सभी मनुष्यादिक के सार्थक वा मेघादि के निरर्थक शब्द अपने स्वरूप का प्रतिपादन करते ही हैं। ____ जाति शब्द, गुण शब्द आदि जाति आदि के नहीं होने पर भी अन्यत्र व्यवहार दृष्टिगोचर होने से इनमें अनैकान्तिक दोष आता है अर्थात् गधा नहीं होने पर भी मूर्ख को गधा कह दिया जाता है। बैल, घोड़ा आदि शब्द गो अश्व आदि जाति के अभाव में भार लादने आदि पुरुषों में प्रवृत्त नहीं होते हैं, ऐसा नहीं है अर्थात् अश्व शब्द शीघ्रगामी मानव में तथा भार ढोने वाले नौकर में 'गौ' शब्द का प्रयोग देखा जाता हैं अतः शब्द स्वकीय स्वरूप को ही कहता है, जाति आदि वाच्य अर्थ को नहीं। . भार वहन करने वाले मन्द मति मानव में गौ आदि शब्द की प्रवृत्ति उपचार से होती है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि दूसरी जातियाँ भी जिस किसी व्यक्ति में प्रवृत्त होती हैं अर्थात् गमन करने वाली गाय कहलाती है। __इत्यादि रूढ़ि शब्दों की प्रवृत्ति होती है तथा जैन मतानुसार भी दण्ड रूप द्रव्य के संयोग से दण्डी कहलाता है। विषाणी (सींग के संयोग से सींग वाला) कहलाता हैं। शुक्ल आदि गुणों के संयोग से शुक्ल आदि कहलाता है तथा 'चरति' आदि क्रिया के संयोग से चलना, तैरना, पाठक आदि क्रिया शब्द हैं। ये द्रव्य, जाति, गुण, क्रिया शब्द भी द्रव्य, गुण और क्रिया रूप अर्थों से व्यभिचार करने वाले समझे जायेंगे। अर्थात् दण्डी दण्ड देने वाले मानव को भी कहते हैं। शुक्ल गोत्र भी हैं। चलना अन्न छानने वाले पात्र (चालनी) का नाम भी है। पाटल गुलाब के फूल को भी कहते हैं, इत्यादि। अत: द्रव्य, जाति गुण और क्रिया से कहे जाने वाले शब्दों में व्यभिचार आता है। सत्ता मात्र शब्द से व्यभिचार नहीं आता है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि असत् पदार्थ में भी सत्ता को कहने वाले शब्दों की प्रवृत्ति होना देखा जाता है। कोई भी वस्तु सत् नहीं है, इस बात को स्वीकार करने वाले, 'सर्व वस्तु सत् स्वरूप ही है' ऐसा कहने वाला स्वस्थ कैसे कहा जा सकता है अत: जैसे शब्द से अभिन्न गुण क्रिया आदि में शब्द का व्यभिचार है वैसे ही शुद्ध द्रव्यवादियों के शुद्ध अद्वैत द्रव्य में भी शब्द की प्रवृत्ति का व्यभिचार दोष आता है इसलिए शब्द को केवल अपने स्वरूप का प्रतिपादक कहना ही श्रेयस्कर है-अर्थात् सभी शब्द अपने स्वरूप का
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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