________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 100 शुद्धद्रव्याद्वैते कथं ? कल्पनामात्रादिति चेत् , इतरत्र समानं / यथैव ह्यात्मा वस्तुस्वभावः शरीरं तत्त्वमित्यादयः पर्याया द्रव्यस्यैवं कथ्यते तदा शब्दस्यैव ते पर्याया इत्यपि शक्यं कथयितुमविशेषात् / ननु च जातिद्रव्यगुणकर्माणि शब्देभ्यः प्रतीयते न च तानि शब्दस्वरूपं श्रोत्रग्राह्यत्वाभावादित्यपि न चोध जात्यादिभिराकारैरसत्यैरेव सत्यस्य शब्दस्वरूपस्यावधार्यमाणत्वात् / तच्छब्दैश्चासत्योपाधिवशाद्रेदमनुभवद्भिस्तस्यैवाभिधानात् / ननु च जात्याधुपाधिकथनद्वारेण तदुपाधिशब्दस्वरूपाभिधानाद् , अन्यथा तदुपाधिव्यवच्छिन्नशब्दरूपप्रकाशनासंभवात् / जात्यादिशब्दों जात्याधुपाधिप्रतिपादका एवेति न शंकनीयं, जात्याधुपाधीनामसत्यत्वात् गृहस्य काकादिवत्सुवर्णस्य रुचकाद्याकारोपाधिवच्च / न च जात्याधुपाधयः सत्या एव तदुपाधीनामपि सत्यत्वापत्तेः उपाधितद्वतो: क्वचिद्व्यवस्थानायोगात् / तदुपाधीनामसत्यत्वे मौलोपाधीनामप्यसत्यत्वानुषंगात् / न चासत्यानामुपाधीनां शुद्ध द्रव्याद्वैतवादी कहते हैं कि - केवल कल्पना मात्र से वाच्य वाचक भाव है वास्तविक नहीं है। तब तो शब्दाद्वैत में भी कल्पना मात्र से वाच्य वाचक भाव होता है ऐसा मान लेना चाहिए, क्योंकि दोनों में समानता है। क्योंकि जैसे आत्मा, वस्तु, स्वभाव, शरीर, तत्त्व आदि पदार्थ शुद्ध द्रव्य की ही पर्या कही जाती हैं; उसी प्रकार आत्मा आदि वस्तुएँ शब्द की ही पर्यायें हैं (ऐसा शब्दाद्वैत में माना है) ऐसा कह सकते हैं। क्योंकि अद्वैत पक्ष में दोनों में कोई अन्तर नहीं है। शंका : जाति, द्रव्य, गुण, कर्म शब्दों के द्वारा प्रतीत होते हैं परन्तु वे स्वयं शब्द रूप नहीं है क्योंकि उन जाति द्रव्य आदि में श्रोत्र ग्राह्यत्व का अभाव है। समाधान : ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि असत्य जाति आदि आकारों के द्वारा सत्य शब्द रूप का ही निर्णय होता है। अवास्तविक उपाधियां के कारण अनेक प्रकार के भेदों को अनुभव करने वाले गोत्व, चणकत्व, ज्ञानी, मूर्ख, सुगन्ध, दुर्गन्ध आदि शब्दों के द्वारा शब्दाद्वैत का कथन नहीं होता है। शंका : जाति आदि विशेषों के कथन से उन विशेषणों से सहित शब्द के स्वरूप का कथन किया जाता है अन्यथा उन उपाधियों के पृथक्भूत केवल शब्द के स्वरूप का कथन करना असंभव है क्योंकि जाति आदि शब्द तो जाति आदि उपाधियों के ही प्रतिपादक हैं, उन जाति शब्द या गुण शब्द आदि से शब्दाद्वैत का प्रतिपादन नहीं होता है। समाधान : ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि शब्द की जाति आदि उपाधियाँ असत्य हैं, परमार्थभूत नहीं हैं। जैसे देवदत्त के गृह (घर) का विशेषण कौआ और सुवर्ण का विशेषण रुचक कुण्डल कंकण आदि वास्तविक नहीं हैं। यह बात अनुमानसिद्ध है। इसके सन्दर्भ में शब्दाद्वैत वादी कहता है कि -जाति गुण कर्म आदि शब्द की उपाधियाँ सत्य नहीं हैं। यदि जाति आदि उपाधियों को सत्य माना जायेगा तो उन उपाधियों के उपाधि रूप विशेषणों के भी सत्यता का प्रसंग आयेगा ऐसा होने पर उपाधि और उपाधिवान की कहीं व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अर्थात् वस्त्र का हरितवर्ण और उस हरे रंग के वस्त्र से होने वाली स्फटिक मणि में हरित वर्ण उपाधि के कारण है। यदि वस्त्र में हरित वर्ण अन्य उपाधि से मान लिया जाये तो उपाधि और उपाधिवान की व्यवस्था नहीं हो सकती। उपाधियों की उपाधियों को भी असत्य मान लेने पर मौलिक उपाधियों के भी असत्यता का प्रसंग आयेगा। शब्दाद्वैतवादी