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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *99 द्वाक्येनापि द्रव्यमात्राद्व्यतिरिक्तस्य तद्वाचकत्वस्य शब्दधर्मस्य प्रकाशने तेनैव हेतोर्व्यभिचारात् / तदप्रकाशने साध्यसिद्धरयोगात् / द्रव्याद्वैतवादिनः शब्दस्य तद्वाचकत्वधर्मस्य परमार्थतो द्रव्यादव्यतिरिक्तत्वात् साधनवाक्येन तत्प्रकाशनेपि न हेतोर्व्यभिचार इति चेत् तर्हि शब्दाद्वैतवादिनोपि सुतरां प्रकृतसाधनवाक्येन न व्यभिचारः, स्वरूपमात्राभिधायकस्य साध्यस्य शब्दधर्मस्य शब्दादव्यतिरिक्तस्य तेन साधनात् द्रव्यमाने राब्दस्य प्रवेशनेन तद्धर्मस्यापि तत्र पारंपर्यानुषक्तेः परिहरणात् / ननु शब्दाद्वैते कथं वाच्यवाचकभावः सभी गुण, कम, द्रव्य आदि के वाचक शब्द शुद्ध द्रव्य के ही अभिधायक (कहने वाले) हैं शब्द होने से, जैसे आत्मा, ब्रह्म, सत् ,चित् आदि शब्द हैं। (इस अनुमान में) केवल शुद्ध द्रव्यतत्त्व से उस द्रव्य का वाचकपना धर्म भिन्न ही है। जो शब्द रूप धर्मी का साध्य स्वरूप धर्म माना गया है। शुद्ध द्रव्यवादी यदि उस अनुमान वाक्य से भी वाचकपने रूप धर्म का प्रकाशित होना मानेंगे तब तो द्रव्यवादियों के शब्दत्व हेतु का उस वाचकत्व धर्म से ही व्यभिचार आयेगा। यदि द्रव्य वाचकत्व रूप साध्य का उस वाक्य से प्रकाश होना नहीं मानेंगे तो द्रव्यवादियों के द्रव्यवाचक रूप साध्य की सिद्धि नहीं हो सकेगी। शब्दाद्वैतवादी कहता है कि द्रव्याद्वैत वादी के "शब्द का और शब्द वाचक धर्म का परमार्थ से द्रव्य से अभिन्न होने से, वाचकत्व को साधने वाले अनुमान वाक्य से द्रव्य वाचकत्व पदार्थका प्रकाशन होने पर भी हेतु से व्यभिचार नहीं आता है अर्थात् अनुमान वाक्य से द्रव्य वाचकत्व ज्ञान होता है तथापि वह वाचकत्व द्रव्य से भिन्न नहीं है अतः शुद्ध द्रव्य का ही ज्ञान होने से हेतु व्यभिचारी नहीं है।" ऐसा कहने पर तो शब्दाद्वैतवादी के भी उसी प्रकार बिना प्रयत्न के प्रकरणप्राप्त स्वरूपसाधक वाक्य के द्वारा हेतु में अनैकान्तिक दोष नहीं आयेगा क्योंकि जो केवल स्वरूप मात्र का अभिधायक (कथन करने वाले) साध्य है वह भी शब्द का ही धर्म है। वास्तव में शब्द से अभिन्न स्वरूप वाचकत्व का उस शब्द हेतु से साधन (सिद्ध) किया है। यदि द्रव्याद्वैतवादी शब्दतत्त्व को केवल शुद्ध द्रव्य में अन्तर्भाव करेंगे तो उसके द्वारा उस शब्द के स्वरूप वाचकत्व धर्म का भी उस द्रव्य में अन्तर्भाव किया जायेगा। तभी परम्परा के प्रसंग होने का परिहार किया जा सकेगा अर्थात् द्रव्य में शब्द का अन्तर्भाव करते समय शब्द के धर्म का भी अन्तर्भाव करना पड़ेगा अतः सिद्ध होता है कि शब्द और उसके धर्म में अभेद है। धर्म और धर्मी में भेद नहीं होता, दोनों का द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव एक ही होता है। प्रश्न : शब्दाद्वैतवाद में वाच्य वाचक भाव कैसे हो सकता है? उत्तर : शुद्ध द्रव्याद्वैत में वाच्य वाचक भाव कैसे होता है? अर्थात् दो भिन्न पदार्थों में वाच्य वाचक भाव हो सकता है, एक ही तत्त्व में वाच्य वाचक भाव नहीं हो सकता है। अत: जिस प्रकार शब्दाद्वैत में वाच्य वाचक भाव नहीं हो सकता है, उसी प्रकार शुद्ध द्रव्याद्वैत में भी वाच्य वाचक भाव नहीं हो सकता। 1. अतः के स्थान पर अन्यथा शब्द की संगति अच्छी बैठती है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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