________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 102 प्रवृत्तिदर्शनात् / न किंचित्सदस्तीत्युपयन् सदेव सर्वमिति ब्रुवाणः कथं स्वस्थो नाम, ततोनर्थान्तरे गुणादाविव शुद्धद्रव्येपि शब्दस्य व्यभिचारात् स्वरूपमात्राभिधायित्वमेव श्रेय इतीतरे / तकेत्र प्रष्टव्याः। कथममी शब्दाः स्वरूपमात्रं प्रकाशयंतो रूपादिभ्यो भिघेरन् ? तेषामपि स्वरूपमात्रप्रकाशने व्यभिचाराभावात् / न स्वरूपप्रकाशिनो रूपादयोऽचेतनत्वादिति चेत्, किं वै शब्दश्चेतनः ? परमब्रह्मस्वभावत्वात् शब्दज्योतिषश्चेतनत्वमेवेति चेत् , रूपादयः किं न तत्स्वभावा: ? परमार्थतस्तेषामसत्त्वात् / अतत्स्वभावा एवेति चेत् , शब्दज्योतिरपि तत एव तत्स्वभावं मा भूत् / तस्य सत्यत्वे वा द्वैतसिद्धिः शब्दज्योति:परमब्रह्मणोः स्वभावतद्वतोर्वस्तुसतोर्भावात् शब्दज्योतिरसत्यमपि परमब्रह्मणोधिगत्युपायत्वात्तत्स्वरूपमुच्यते "शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छतीति" वचनात् / न तथा रूपादय इति चेत् कथमसत्यं तद्वदधिगतिनिमित्तं ? ही कथन करते हैं, अन्य वाच्य अर्थ का नहीं। इस प्रकार शब्दाद्वैतवादियों ने शुद्ध द्रव्य वादियों के प्रति कथन किया है। यहाँ से जैनाचार्य शब्दाद्वैतवादी के प्रति कहते हैं कि : इस प्रकरण में शब्दाद्वैतवादी इस प्रकार पूछने योग्य है अर्थात् शब्दाद्वैतवादी से हम पूछते हैं- कि स्वकीय स्वरूप के प्रकाशक शब्द रूप रस आदि से भिन्न कैसे हो सकेंगे ? क्योंकि उन रूप. रस आदिक के भी अपने स्वरूप का प्रकाश करने में व्यभिचार का अभाव है अर्थात् रूप रस आदि भी अपने स्वरूप का प्रकाशन करते ही हैं। अचेतन होने से रूप आदि स्वरूप प्रकाशक नहीं हैं ऐसा कहने पर क्या शब्द चेतन है ? “चिद्रूप परम ब्रह्म का स्वभाव होने से शब्द रूप ज्योति चेतन है, ऐसा कहते हो तो फिर रूप आदि ब्रह्म के स्वभाव (वा ब्रह्म की पर्याय) होने से चेतन क्यों नहीं हैं ? अर्थात् रूपादिक भी तो परम ब्रह्म से अभिन्न हैं। अत: वे ब्रह्म की पर्याय हैं। रूप, रस आदि परमार्थ सत् नहीं हैं, इसलिए अतत् स्वभाव (परमब्रह्म का स्वरूप नहीं) हैं। ऐसा कहने पर शब्द ज्योति भी ब्रह्म का स्वभाव नहीं हो सकती क्योंकि शब्द रूप प्रकाश भी वास्तव में सत्पदार्थ नहीं है। यदि शब्द को सत्यस्वरूप स्वीकार करेंगे तो ब्रह्माद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकेगी अपितु द्वैत की सिद्धि होगी अत: शब्द ज्योति स्वभाव एक तत्त्व है और शब्द ज्योति स्वभाव का धारक परम ब्रह्म एक तत्त्व है। इस प्रकार दो तत्त्व की सिद्धि होती है। अर्थात् परमार्थ दो सत् पदार्थ हैं। अत: स्वभाव और स्वभाववान वस्तु का सद्भाव है। अद्वैतवादी कहता है कि शब्द ज्योति असत्य है फिर भी वस्तुभूत परम ब्रह्म तत्त्व को जानने का उपाय है इसलिए शब्द तत्त्व परम ब्रह्म का स्वरूप कहा जाता है, ऐसा शब्दाद्वैत के ग्रन्थों में कहा है कि“शब्द ब्रह्म में निष्णात (प्रवीण) मानव परम ब्रह्म को जान लेता है" वा परम ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है,