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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 97 स्वैराकारैरपायिभिः / रुचकाद्यभिधानानां शुद्धमेवेति वाच्यताम् // " इति / तद्वद्रूपाद्युपाधिभिरुपधीयमानद्रव्यस्य रूपादिशब्दैरभिधानेपि शुद्धस्य द्रव्यस्यैवाभिधानसिद्धेर्न तेषामद्रव्यविषयत्वं तदुपाधीनामसत्यत्वाद् गृहस्य काकाद्युपाधिवत् , सुवर्णस्य रुचकाद्याकारोपाधिवच्च / सत्यत्वे पुनरुपाधीनां रूपाद्युपाधीनामपि सत्यत्वप्रसंगात् तथा तदुपाधीनामित्यनवस्थानमेव स्यात् , उपाधितद्वतोरव्यवस्थानात् / भ्रांतत्वे पुनरुपाधीनां द्रव्योपाधीनामसत्यत्वमस्तु तद्व्यतिरेकेण तेषां संभवात् स्वयमसंभवतां शब्दैरभिधाने तेषां निर्विषयत्वप्रसंगादिति सविषयत्वं शब्दानामिच्छता शुद्धद्रव्यविषयत्वमेष्टव्यं, तस्य सर्वत्र सर्वदा व्यभिचाराभावादुपाधीनामेव रुचक वर्धमान स्वस्तिक आदि विनाशशील आकारों के द्वारा गृहीत सुवर्ण द्रव्य का कथन करने वाले रुचक आदि शब्दों से शुद्ध सुवर्ण ही विषयता को प्राप्त होता है अर्थात् रुचक आदि अनित्य पर्यायों के द्वारा सुवर्ण का कथन करने पर भी वर्णन शुद्ध सुवर्ण का ही होता है। कहा भी है, जैसे अध्रुव काकादि के निमित्त गृह शब्द के द्वारा गृहीत शुद्ध गृह का ही कथन किया जाता है तथा नाशवन्त अपने आकारों के द्वारा जैसे रुचकादि के कथन करने वाले शब्दों से शुद्ध सुवर्ण का ही कथन होता है; उसी प्रकार रूपादि उपाधियों के द्वारा ग्रहीत द्रव्य का रूपादि शब्दों के द्वारा कथन करने पर शुद्ध द्रव्य के कथन की ही सिद्धि होती है। असत्य और अद्रव्य होने से रूपादि उपाधियों को शब्द विषय नहीं करता है। जैसे काक आदि की उपाधि गृह को जानने में निमित्त है परन्तु काकादि उपाधि को शब्द ग्रहण नहीं करता है तथा रुचकादि उपाधियों से शुद्ध सुवर्ण का ही ग्रहण होता है अर्थात् उपाधियों के द्वारा अशुद्ध द्रव्य का ग्रहण होने पर कथन शुद्ध द्रव्य का ही होता है यदि उपाधियों को सत्य स्वीकार किया जायेगा तब तो रूपादि उपाधियों को भी सत्य स्वीकार करना पड़ेगा तथा उपाधियाँ और उपाधिवान की अव्यवस्था होने से उपाधियों के अनवस्था दोष आयेगा अर्थात् उपाधि विनाशशील है, किसी द्रव्य में व्यवस्थित नहीं है-अत: अनवस्था दोष आयेगा। उपाधि सहित विशिष्ट पदार्थ की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। काक आदि उपाधियों को भ्रान्त मानने पर तो शुद्ध द्रव्य की रूपादि उपाधियाँ भी असत्य हो जायेंगी। क्योंकि परमार्थ भूत द्रव्य से भिन्न रूपादि विशेषणों की असंभवता है अर्थात् वे रूपादि वस्तुभूत पदार्थ नहीं हैं। अतः स्वयं असद्भूत रूपादिक विशेषणों को शब्दों के द्वारा वाचन (उच्चारण) मान लेने पर उन शब्दों के विषय रहितपने का प्रसंग आता है। अर्थात् जैसे गधे के सींग को कहने वाला शब्द स्वकीय वाच्य (गधे का सींग) के विषय से रहित है। उसी प्रकार रूप आदि शब्द भी निर्विषय हो जायेंगे अत: शब्दों को विषय सहित चाहने वाले विद्वानों को शब्द का विषय शुद्ध द्रव्य ही मानना चाहिए क्योंकि सर्वदेश और सर्वकाल में शुद्ध द्रव्य के व्यभिचार का अभाव है। केवल शुद्ध द्रव्य के विशेषणों में ही व्यभिचार आता है अर्थात् विशेषण ही अनेक में रहते हैं अत: अनैकान्तिक दोष से युक्त हैं। जैसे शुद्ध आकाश सर्वत्र सदाकाल रहने वाला है परन्तु घटाकाश पटांकाश आदि उपाधियों से अन्यत्र देश में व्यभिचार आता है। शुद्ध आकाश का कहीं भी व्यभिचार नहीं है। 1. नींबू के समान गोल आकार वाले सुवर्ण को रुचक कहते हैं। 2. एरण्ड के पत्ते के आकार वाले को वर्धमान कहते हैं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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