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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 94 अनन्वयादभिमतार्थे प्रवृत्त्यादिव्यवहारस्य विरोधात् / स्वयमप्रतिपन्ने स्वलक्षणे संकेतस्यासंभवाच्च / वाचकानां प्रत्यक्षादिभिः प्रतिपन्नेक्षादिसामर्थ्यादेव प्रवृत्तिसिद्धेः / प्रतिपत्तुः शब्दार्थापेक्षयानर्थक्यात् किं तु द्रव्यनित्यमपि तस्यानंत्याविशेषात्। स्यान्मतं / तत्र साकल्येन संकेतस्य करणमशक्तेः / किं तर्हि क्वचिदेकत्र न चानन्वयोस्य संकेतव्यवहारकालव्यापित्वान्नित्यत्वादिति / तदसंगतं / कर्के संकेतितादश्वशब्दाच्छोणादौ प्रवृत्त्यभावप्रसंगात् तत्र तस्यानन्वयात् / न च प्रतिपाद्यप्रतिपादकाभ्यामध्यक्षादिना नित्येपि कर्के प्रतिपन्ने वाचकस्य संकेतकरणं किंचिदर्थं पुष्णाति प्रत्यक्षादेरेव तत्र प्रवृत्त्यादिसिद्धेः / स्वयं ताभ्यामप्रतिपन्ने तु कुत: संकेतो वाचकस्यातिप्रसंगात्। में सम्पूर्ण रूप से संकेत करना शक्य नहीं है कारण कि वे स्वलक्षण अनन्त हैं और उन अनन्त स्व लक्षणों करना साध्य नहीं हो सकता क्योंकि एक स्वलक्षण व्यक्ति में संकेत करने पर, एक व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों में अन्वय न होने के कारण अभीष्ट अर्थ में प्रवृत्ति आदि व्यवहार होने का विरोध आता है तथा जिस स्वलक्षण को आजतक स्वयं प्रतिपादक और प्रतिपाद्यों ने नहीं जाना है ऐसे स्वलक्षण तत्त्व में वाचक शब्दों का संकेत करना भी असंभव है क्योंकि वाच्य पदार्थों का प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा इन्द्रिय हेतु आदि के सामर्थ्य से निर्णय कर लेने पर ही वाचकों की प्रवृत्ति होना सिद्ध हो सकता है। अन्यथा समझने वाले ज्ञाता के शब्दार्थ की अपेक्षा निरर्थक है अर्थात् चक्षु से घट व्यक्ति को देख लेने पर और घट शब्द को कर्णेन्द्रिय के द्वारा सुन लेने पर ही संकेत ग्रहण का व्यवहार किया जाता है पर्याय युक्त द्रव्य में ही संकेत ग्रहण और व्यवहार होता है परन्तु सर्वथा क्षणिक स्वलक्षण के समान सर्वथा कूटस्थ नित्य द्रव्य. भी शब्द का विषय तथा व्यवहार के योग्य नहीं है क्योंकि उन द्रव्यों में सामान्य रूप से अनन्तपना विद्यमान है अतः शब्द के द्वारा क्षणिक स्वलक्षण और कूटस्थ नित्य द्रव्य इन दोनों का वाचन (कथन) नहीं हो सकता। इस प्रकार आचार्यदेव ने अन्य एकान्तवादी दार्शनिकों के कथन का खण्डन कर युक्ति और आगम के द्वारा नाम निक्षेप को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। शङ्का : शब्द का वाच्यार्थ नित्य द्रव्य में पूर्ण रूप से संकेत करना भले ही अशक्य है तो फिर क्या किया जाय? इसका उपाय है कि किसी एक व्यक्ति में तो वाच्य-वाचक का संकेत ग्रहण किया जा सकता है, ऐसी दशा में अनुगत प्रतीतिरूप अन्वय का न मिलना नहीं है, जबकि अनुगत प्रतीति का होना रूप अन्वय ठीक मिल रहा है। क्योंकि वह नित्यद्रव्य संकेत काल और व्यवहार काल में नित्य होने के कारण व्याप रहा है। समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना असंगत (युक्तियुक्त नहीं) है क्योंकि श्वेत घोड़े से संकेत किये गये अश्व शब्द से लाल आदि घोड़े में प्रवृत्ति करने के अभाव का प्रसंग आयेगा। क्योंकि उस श्वेत घोड़े का अन्वय लाल आदि घोड़े में नहीं है तथा प्रतिपाद्य श्रोता और प्रतिपादक वक्ता के द्वारा प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से नित्य द्रव्य रूप श्वेत अश्व को जान लेने पर भी उस वाचक अश्व शब्द का वहाँ संकेत करना किसी भी अर्थ को पुष्ट नहीं करता है क्योंकि उस नित्य श्वेत अश्व में तो प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाण से ही प्रवृत्ति, निवृत्ति आदि का व्यवहार होना सिद्ध है। अर्थात् जिस व्यक्ति को संकेत काल में जाना है उसी नित्य व्यक्ति को व्यवहार काल में जानने से क्या लाभ है अर्थात् कुछ भी नहीं।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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