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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 93 प्रवृत्तिरित्यनुमानपक्षभावी दोषः / सामान्यविशेषस्यानुमानार्थत्वाददोष इत्यपरः। तस्यापि शब्दार्थो जातिमात्रं मा भूत् सामान्यविशेषस्यैव तदर्थतोपपत्तेः। संकेतस्य तत्रैव ग्रहीतुं शक्यत्वात् / तथा च शब्दात्प्रत्यक्षादेरिव सामान्यविशेषात्मनि वस्तुनि प्रवृत्तेः परमतसिद्धेर्न जातिरेव शब्दार्थः।। द्रव्यमेव पदार्थोस्तु नित्यमित्यप्यसंगतम्। तत्रानंत्येन संकेतक्रियायुक्तेरनन्वयात् // 23 // वांछितार्थप्रवृत्त्यादिव्यवहारस्य हानितः। शब्दस्याक्षादिसामर्थ्यादेव तत्र प्रवृत्तितः॥ 24 // न हि क्षणिकस्वलक्षणमेव शब्दस्य विषयस्तत्र साकल्येन संकेतस्य कर्तुमशक्तेरानंत्यादेकत्र संकेतकरणे यदि शब्द से जाति की प्रतीति और जाति से अर्थापत्ति के द्वारा विशेष अभीष्ट व्यक्ति की प्रतिपत्ति होती है ऐसा मानते हो तो उस जाति के द्वारा व्यक्ति की अर्थापत्ति क्या प्रत्येक व्यक्ति में नियमित हुए असाधारण स्वरूप से होती है या अनेक व्यक्तियों में पाये जाने वाले सामान्य (साधारण) रूप से होती है? उसमें प्रथम विकल्प (असाधारण नियमित) से होती है तो ऐसा मानना उपयुक्त नहीं है क्योंकि विशिष्ट असाधारण स्वरूप के द्वारा उस व्यक्ति के साथ जाति का अविनाभाव संबंध प्रसिद्ध नहीं है और दूसरा विकल्प ग्रहण करने पर अर्थक्रिया करने वाले अभीष्ट प्रकृत विशेष पदों में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। इस प्रकार प्रथम अनुमान पक्ष के दोष अर्थापत्ति वाले पक्ष में भी स्थित रहेंगे। कोई विद्वान् कहते हैं कि अनुमान प्रमाण का विषय केवल सामान्य नहीं है, अपितु सामान्यविशेषात्मक पदार्थ है इसलिए इस में अनवस्था आदि दोष न होने से अदोष (निर्दोष) है। जैनाचार्य कहते हैं कि उस वादी के यहाँ इस कथन से शब्द का वाच्यार्थ केवल सामान्य नहीं हुआ, अपितु इस कथन से सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ ही शब्द का वाच्यार्थ सिद्ध होता है और उस सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ में ही संकेत ग्रहण करना शक्य हो सकता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैसे प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से सामान्य विशेषात्मक वस्तु को जानकर उसमें प्रवृत्ति होती है अतः प्रत्यक्ष आदि का विषय सामान्य विशेषात्मक वस्तु है वैसे ही शब्द से भी सामान्य विशेषात्मक वस्तु में प्रवृत्ति और ज्ञप्ति होना प्रतीत होता है और इस कथन से परमत (जैनमत) की सिद्धि होती है अत: केवल जाति ही शब्द का वाच्य अर्थ है, यह सिद्ध नहीं होता। सभी शब्द नित्य द्रव्य के वाचक हैं, ऐसा भी मीमांसक का कहना सुसंगत नहीं है क्योंकि अनन्त नित्य द्रव्य में संकेत क्रिया अयुक्त घटित नहीं हो सकती है और एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अन्वय भी नहीं हो सकता है तथा नित्य द्रव्य ही शब्द का वाच्यार्थ ऐसा मान लेने पर शब्द के द्वारा प्रकृत अभीष्ट अर्थ में प्रवृत्ति होना या अनिष्ट अर्थ से निवृत्ति होना आदि व्यवहारों की हानि हो जायेगी। क्योंकि इन्द्रिय, मन, हेतु आदि के सामर्थ्य से ही शब्द की इष्ट अर्थ में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति होती है अर्थात् नित्य द्रव्य को शब्द का वाच्यार्थ मानने पर तो अनेक दूषण प्राप्त होते हैं॥२३-२४॥ बौद्ध दर्शन में स्वीकृत सर्वथा क्षणिक द्रव्य भी शब्द का विषय नहीं है क्योंकि क्षणिक स्वलक्षण
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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