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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 91 यत्र शब्दात्प्रतीति: स्यात्सोर्थः शब्दस्य चेन्ननु / व्यक्तेः शब्दार्थता न स्यादेवं लिंगात्प्रतीतितः॥२०॥ शब्दादेव प्रतीयमानं शब्दार्थमभिप्रेत्य शब्दलक्षितात्सामान्याल्लिंगात् प्रतीयमानां व्यक्तिं शब्दार्थमाचक्षाणः कथं स्वस्थः, परंपरया शब्दात्प्रतीयमानत्वात्तस्याः शब्दार्थत्वेक्षार्थतां कथं बाध्यते तथाक्षेणापि प्रतीयमानत्वादुपचारस्योभयत्राविशेषात्। न च लक्षितलक्षणयापि शब्दव्यक्तौ प्रवृत्तिः संभवतीत्याह;शब्दप्रतीतया जात्या न च व्यक्तिः स्वरूपतः। प्रत्येतुं शक्यते तस्याः सामान्याकारतो गतेः॥२१॥ व्यक्तिसामान्यतो व्यक्तिप्रतीतावनवस्थितेः। क्व विशेषे प्रवृत्तिः स्यात्पारंपर्येण शब्दतः // 22 // जिस पदार्थ की शब्द से प्रतीति होती है वह उस शब्द का वाच्य अर्थ है। ऐसा कहने पर तो विशेष व्यक्तियों के शब्द की वाच्यता नहीं हो सकेगी क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार हेतु से व्यक्ति की प्रतीति होती है। अतः अर्थ क्रिया करने में उपयोगी विशिष्ट पदार्थ का ज्ञान तो अनुमान से होता है / शाब्द बोध का विषय कोई विशिष्ट पदार्थ नहीं हो सकेगा।॥२०॥ . शब्द ही से जाने हुए पदार्थों को शब्द का अर्थ मानकर शब्द से लक्षणा और अभिधा वृत्ति के द्वारा जाति का वाचन होता है और जाति से हेतु के द्वारा व्यक्ति की प्रतीति होती है। इस प्रकार कहने वाला पुरुष स्वस्थ कैसे हो सकता है अर्थात् ऐसा कहने वाला मानव पागल है। .... परम्परा से शब्द के द्वारा प्रतीयमान होने से उस व्यक्ति के शब्दार्थत्व होने पर इन्द्रियों के विषयत्व कैसे बाधित हो सकेगा अर्थात् यदि परम्परा से शब्द के द्वारा व्यक्ति की प्रतीति होती है इसलिए व्यक्ति को शब्द का वाच्यार्थ माना जायेगा तब तो उस व्यक्ति को इन्द्रियों का विषयत्व कैसे बाधित हो सकेगा क्योंकि उस प्रकार परम्परा से इन्द्रियों के द्वारा भी शब्द और जाति के बीच में देकर उस व्यक्ति की प्रतीति होती है तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रतीयमान होने से ज्ञापक में भी विषयपने का उपचार किया जायेगा तब तो ज्ञापक का ज्ञापक में भी उपचार किया जा सकता है क्योंकि उपचार करना दोनों स्थलों में समान है। ... लक्षित लक्षणा करके भी शब्द के द्वारा किसी प्रकृत व्यक्ति में प्रवृत्ति होना संभव नहीं है। इसी बात को स्पष्ट कहते हैं वा स्पष्ट करते हैं-शब्द के द्वारा प्रतीत जाति के द्वारा अपने स्वरूप से व्यक्ति (विशिष्ट एक पदार्थ) की प्रतीति नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उस व्यक्ति का सामान्य आकार से ही ज्ञान होता है अर्थात् हेतु और साध्य की व्याप्ति सामान्य रूप से ही होती है विशेष रूप से नहीं जैसे धुआँ रूप हेतु के द्वारा सामान्य अग्नि का ज्ञान होता है, विशेष तृणादि का नहीं॥२१॥ यदि जाति सामान्य के द्वारा व्यक्ति (विशेष) को जानकर सामान्य व्यक्ति से विशेष व्यक्ति की प्रतीति करने के लिए पुनः अनुमान करोगे तो अनवस्था दोष आयेगा। क्योंकि सभी व्यक्तियाँ सामान्य से ही होती हैं अतः शब्द के द्वारा परम्परा से भी विशेष अर्थ में ज्ञप्ति पूर्वक प्रवृत्ति कहाँ हो सकती है, कहीं भी नहीं // 22 // 1. शब्द से शब्द का ज्ञान लक्षित लक्षणा है। जैसे द्विरेफ शब्द से भ्रमर और भ्रमर से मधुकर अर्थ लक्षित होता है, यह लक्षित लक्षणा है।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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