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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 90 तथानुमानार्थाः करणेन प्रतीताल्लिंगाल्लिंगिनि ज्ञानोत्पत्तेः / एतेनार्थापत्त्यादिपरिच्छेद्यस्यार्थस्याक्षार्थताप्रसक्तिर्व्याख्याता, पारंपर्येणाक्षात्परिच्छिद्यमानत्वाविशेषादित्यक्षार्थ एव शब्दो निर्बाध: स्यान्न शब्दाद्यर्थ: सामान्यशब्दार्थवादिनो न चैवं प्रसिद्धः॥ यद्यस्पष्टावभासित्वाच्छब्दार्थः कश्चनेष्यते। लिंगार्थोपि तदा प्राप्तः शब्दार्थो नान्यथा स्थितिः॥१९॥ ___शब्दात्प्रतीता जातिर्जात्या वा लक्षिता व्यक्तिः शब्दार्थ एवास्पष्टावभासित्वादित्ययुक्तं, लिंगार्थेन व्यभिचारात्। तस्यापि पक्षीकरणे लिंगार्थयोः स्थित्ययोगात्॥ तथा अनुमान प्रमाण से जानने योग्य विषय भी इन्द्रियों के द्वारा प्रतीत होने से लिंगी (साध्य) में ज्ञान उत्पन्न होता है अर्थात् यहाँ भी परम्परा से अनुमेय अर्थ में इन्द्रियों की विषयता प्राप्त होती है। इस उक्त कथन से अर्थापत्ति प्रत्यभिज्ञान आदि के द्वारा जानने योग्य पदार्थों के भी इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य की प्राप्ति होती है, ऐसा कथन किया है क्योंकि अर्थापत्ति आदि प्रमाणों का उत्थान भी इन्द्रियों से पदार्थों को जान लेने पर ही होता है अत: अर्थापत्तिगम्य पदार्थों का भी परम्परा से इन्द्रियों से संबंध है। परम्परा से इन्द्रियों द्वारा पदार्थों का ज्ञेयत्व विशेषता रहित होकर सम्पूर्ण क्षायोपशमिक ज्ञान में विद्यमान है अत एव शब्द और शब्द का वाच्य अर्थ निर्बाध इन्द्रियों का विषय हो ही जाता है और ऐसा होने पर शब्द हेतु, सादृश्य आदि के द्वारा जानने योग्य कोई अर्थ नहीं रहेगा हैं परन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि जाति को सामान्य शब्दार्थ कहने वाले मीमांसक के ऐसी प्रसिद्धि नहीं है अर्थात् मीमांसक मत में इन्द्रियों के विषय पृथक् हैं और हेतु शब्द आदि के विषय पृथक् हैं अतः सारे ज्ञान इन्द्रियों के विषय नहीं हो सकते। इन्द्रियों के द्वारा जाने गये विषयों का स्पष्ट प्रतिभास होता है परन्तु शब्द के द्वारा जाने गये वाच्यार्थ का स्पष्ट प्रतिभास नहीं होता है अत: इन्द्रियगोचर अर्थों से पृथक्भूत कोई अस्पष्ट शब्द के वाच्यार्थ माने गये हैं तब तो अस्पष्ट प्रतिभास होने के कारण हेतुजन्य ज्ञान का विषय अनुमेय भी शब्दजन्य ज्ञान के गोचर प्राप्त होगा। अन्यथा शब्द वाच्यार्थ की सिद्धि नहीं कर सकता॥१९॥ शब्द से जाति जानी जाती हैं और जाति के द्वारा व्यक्ति का ज्ञान होता है अतः अविशद प्रकाश करने वाला होने के कारण वह व्यक्ति शब्द का विषय है इन्द्रिय गोचर नहीं / इस प्रकार मीमांसक का कहना भी युक्ति से रहित है क्योंकि अविशद प्रकाशत्व हेतु का धूम आदि लिंग के विषयभूत अग्नि आदि अर्थ के द्वारा व्यभिचार आता है। अर्थात् जिसका अस्पष्ट प्रकाश है, शब्द का विषय है, ऐसी व्याप्ति बनाने पर लिंग के द्वारा जाने गये अनुमेय अर्थ से व्यभिचार है। अनुमेय अर्थ भी अस्पष्ट रूप से जाना गया है अत: वह भी शब्द का विषय हो जायेगा। यदि उस अनुमेय अर्थ को भी पक्ष में रख लेंगे तो अनुमान से और शाब्द बोध से जाने गये भिन्न-भिन्न प्रमेयों की स्थिति कैसे हो सकेगी।
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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