________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 89 तथाह्यनुमितेरर्थो व्यक्तिर्जाति: पुनर्ध्वनेः / क्वान्यथाक्षार्थताबाधा शब्दार्थस्यापि सिध्यतु // 17 // अक्षणानुगतः शब्दो जातिं प्रत्याययेदिह। संबंधात् सापि निःशेषा स्वव्यक्तीरिति तन्नयः॥१८॥ ___ द्रव्यत्वजाति: शब्देन लक्षिता द्रव्यं लक्षयति तत्र तस्याः समवायात्। गुणत्वजातिर्गुणं कर्मत्वजाति: कर्म। तत एव द्रव्यं तु समवेतसमवायात्प्रत्यापयति / विवक्षासामान्यं तु शब्दात्प्रतीतं विवक्षितार्थं संयुक्तसमवायादेरित्येतदशब्दार्थज्ञताया एव विजूंभितं / द्रव्यगुणकर्मणां विवक्षितार्थानां चैवमनुमेयानां शब्दार्थत्वाभिधानात्। शब्दात्परंपरया तेषां प्रतीयमानत्वात् शब्दार्थत्वे कथमक्षार्थता न स्यादक्षात्परंपरायाः प्रतीयमानत्वात् / शब्दो हि श्रोत्रेणावगतो जातिं प्रत्यायः यति सापि स्वव्यक्तीरिति सर्वः शब्दार्थोक्षार्थ एव / का विषय हो गया। अन्यथा यानी यदि अनुमान से व्यक्ति का ज्ञान नहीं करोगे तो कौन सी व्यक्ति में शब्द की वाच्यता कहोगे ? शब्द से जाति जानी जाती है और जाति से व्यक्ति लक्षित होती है अतः शब्द से ही परम्परा से व्यक्ति का ज्ञान हुआ। यदि ऐसा कहोगे तब तो शब्द के वाच्यार्थ को इन्द्रियों का विषयपना भी बाधा रहित सिद्ध हो जायेगा। श्रोत्र इन्द्रिय से पहले शब्द का श्रावण प्रत्यक्ष होता है पीछे वह शब्द शाब्द बोध प्रणाली से जाति का ज्ञान कराता है। तत्पश्चात् इन व्यक्तियों में जाति का संबंध होने से वह जाति भी अपने आश्रयभूत सम्पूर्ण व्यक्तियों को लक्षित करा देती है, इस प्रकार उन मीमांसकों की नीति है। यहाँ परम्परा से वाच्यार्थ को श्रोत्र इन्द्रिय का विषयपना प्राप्त हो जाता है किन्तु यह किसी को इष्ट नहीं है॥१६१७-१८॥ - कोई कहता है कि द्रव्य शब्द के द्वारा जाति, द्रव्यत्व जाति लक्षणा वृत्ति से द्रव्य व्यक्ति का ज्ञान करा देती है क्योंकि उस द्रव्य में द्रव्यत्व जाति का समवाय संबंध है; गुणत्व जाति गुण (व्यक्ति) को लक्षित कर देती है तथा भ्रमण, चलन, सरण, तिर्यपवन आदि क्रिया शब्द भी कर्मत्व जाति को कहते हैं। उस कर्मत्व जाति से कर्मपदार्थ लक्षित हो जाता है। उसी प्रकार समवेत समवायरूप परम्परा संबंध से गुणत्व, कर्मत्व जातियाँ द्रव्य का भी निर्णय करा देती हैं। डित्थ शब्द से तो वक्ता संबंधी बोलने की इच्छा में रहने वाली इच्छात्व जाति की अर्थात् विवक्षा सामान्य की प्रतीति होती है और जाति से विवक्षित अर्थ की संयुक्त समवाय या संयुक्त समवेत समवाय आदि संबंधों से ज्ञप्ति हो जाती है। अब ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकार यह कथन शब्द और अर्थ के सूक्ष्म तत्त्वों को जानने पन का ही विलास है, इसमें कोई सार नहीं है। .. कोई कहते हैं कि अनुमान के विषयभूत विवक्षित अर्थ द्रव्यगुण कर्मों के शब्दार्थ का कथन किया है क्योंकि शब्द से जाति और जाति से व्यक्ति इस प्रकार परम्परा से शब्द के द्वारा ही उन द्रव्य गुण कर्म और व्यक्तियों की प्रतीति होती है। जैनाचार्य कहते हैं कि उन द्रव्य गुण आदि को शब्दार्थ मान लेने पर उन द्रव्य गुण कर्मों के इन्द्रियों का विषयपना भी क्यों नहीं प्राप्त होगा। क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा भी परम्परा से द्रव्य आदिक प्रतीत होते हैं। जब श्रोत्र इन्द्रिय से पहले शब्द जान लिया जाता है तब वह शब्द शाब्द प्रक्रिया से जाति का परिज्ञान कराता है। तत्पश्चात् वह जाति भी अपने आश्रित व्यक्तियों की प्रतीति कराती है इस प्रकार शब्दों के सभी अर्थ इन्द्रियों के ही विषयभूत अर्थ कहे जायेंगे।