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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 88 प्रागभावादीनां भावस्वभावत्वादन्यथा निरुपाख्यत्वापत्तेरिति / तदेतदसत्यम्। सर्वदा जातिशब्दाद्व्यक्तिसंप्रत्ययस्याभावानुषंगात्। तथा चार्थाक्रियार्थिनः प्रतिपत्तॄन् प्रति शब्दप्रयोगोनर्थकः स्यात्। ततः प्रतीयमानया जात्याभिप्रेतार्थस्य वाहदोहादेरसंपादनात् / स्वविषयज्ञानमात्रार्थक्रियायाः संपादनाददोष इति चेन्न, तद्विज्ञानमात्रेण व्यवहारिणः प्रयोजनाभावात्। न शब्दजातौ लक्षितायामर्थक्रियार्थिनां व्यक्तौ प्रवृत्तिरुत्पद्यते अति प्रसंगात्॥ शब्देन लक्षिता जातिर्व्यक्तीर्लक्षयति स्वकाः। संबंधादित्यपि व्यक्तमशब्दार्थज्ञतेहितम्॥१६॥ इस पूर्वोक्त कथन से यह बात भी कही गयी समझ लेना चाहिए कि प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव आदि पदार्थ तुच्छ अभाव रूप नहीं हैं किन्तु भाव सामान्य में इनकी वृत्ति कही गयी है अतः ये पदार्थ ही हैं। अतः प्रागभाव, ध्वंस आदि शब्दों की प्रवृत्ति भावों में रहने वाली जातियों में है। यदि प्रागभाव आदिकों को भाव स्वभाव न मानकर अन्य प्रकार से तुच्छ अभाव मानेंगे तब तो अभाव पदार्थ को उपाख्या रहितपने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् उस अभाव का वचनों से कथन ही नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार मीमांसकों के कथन करने पर जैनाचार्य खण्डन करते हैं कि जाति ही सब शब्दों का अर्थ है। यहाँ से लेकर निरुपाख्यपने की आपत्ति देने तक किसी का कहना सर्व असत्य है क्योंकि यदि शब्दों के द्वारा जातियों का ही निरूपण किया जावेगा तो उन सभी जाति शब्दों से सदा गौ आदि व्यक्तियों के ज्ञान होने के अभाव का प्रसंग आयेगा तथा अर्थक्रिया के चाहने वाले ज्ञाता का श्रोताओं के प्रति शब्द का प्रयोग करना व्यर्थ होगा तथा अर्थक्रिया को नहीं करने वाला पदार्थ वास्तविक पदार्थ नहीं है तथा शब्द के द्वारा जानी गयी जाति से लादना, दोहना आदि हमारे अभीष्ट अर्थों का संपादन नहीं होता है अत: सभी शब्दों का जाति रूप अर्थ मानना अयुक्त है। शंका : गोत्व जाति आदि भी स्वयं ज्ञान के विषयभूत अपना ज्ञान करा देने रूप अर्थक्रिया की संपादक है अत: जाति ही सब कुछ है, यह कथन निर्दोष है। समाधान : ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि खाना-पीना आदि व्यवहार को करने वाले पुरुष का उस जाति को केवल विषय करने वाले ज्ञान से कोई प्रयोजन नहीं सधता है अर्थात् जैसा गौ, घट, पट इन व्यक्तियों से ढोना, दुहना, जलधारण, शीत को दूर करना आदि वाञ्छनीय अर्थक्रियाएँ होती हैं ये क्रियाएँ गौ आदिक के ज्ञान से नहीं होने पाती हैं अत: गोत्व आदि जातियाँ भी किसी काम की नहीं हैं। शब्द जाति में लक्षित अर्थक्रिया से अर्थियों की व्यक्ति में प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है इसी को स्पष्ट करते हैं कि शब्द के द्वारा पहले जाति कही जाती है, तदनन्तर जाति और व्यक्ति का समवाय संबंध होने के कारण यह जाति अपनी आधारभूत व्यक्तियों का लक्षणा वृत्ति से ज्ञान करा देती है। इस प्रकार का कथन भी प्रगट रूप से शब्द शास्त्र और अर्थशास्त्र को न जानने वाले की चेष्टा है। शब्द से पहले जाति जानी जाती है और फिर अनुमान से व्यक्तिरूप अर्थ जाना जाता है। ऐसी दशा में शब्द का प्रसिद्ध वाच्यं अर्थ तो अनुमान
SR No.004285
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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