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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-६२ पुरुषेण व्याख्यातमपौरुषेयं वचः क्रियायाः प्रवर्तक मिति चेत्, स पुरुषः प्रत्ययितोऽप्रत्ययितो वा? न तावत्प्रत्ययितोऽतीन्द्रियार्थज्ञानविकलस्य रागद्वेषवतः सत्यवादितया प्रत्येतुमशक्तेः।। __ स्यादपींद्रियगोचरेऽर्थेऽनुमानगोचरे वा पुरुषस्य प्रत्ययिता न तु तृतीयस्थानं संक्रांते जात्यंधस्येव रूपविशेषेषु / न च ब्रह्मा मन्वादियंतीन्द्रियार्थदर्शी रागद्वेषविकलो वा सर्वदोपगतो यतोऽस्मात्प्रत्ययिताच्चोदनाव्याख्यानं प्रामाण्यमुपेयादित्युक्तं प्राक् / स्वयमप्रत्ययितात्तु पुरुषात् तद्व्याख्यानं प्रवर्तमानमसत्यमेव नद्यास्तीरे फलानि संतीति लौकिकवचनवत्। न चापौरुषेयं वचनमतथाभूतमप्यर्थं ब्रूयादिति विप्रतिषिद्धं यतस्तद्व्याख्यानमसत्यं न स्यात्। . पुरुष के द्वारा व्याख्यात (कथित) अपौरुषेय वचन क्रिया का प्रवर्तक है ऐसा मानते हो तो वह वेदवचन का व्याख्याता पुरुष विश्वास करने योग्य है कि नहीं? अपौरुषेय वेदवचन का व्याख्याता पुरुष विश्वास करने योग्य है, ऐसा कहना ठीक नहीं है- क्योंकि इन्द्रियों के अगोचर अर्थज्ञान से रहित (अतीन्द्रिय ज्ञान से विकल) रागीद्वेषी व्याख्याता का सत्यवादित्व (वह सत्यवादी है) रूप से विश्वास करना अशक्य है। इन्द्रियगोचर और अनुमानगोचर पदार्थ में व्याख्याता पुरुष का विश्वास किया जा सकता है। परन्तु तृतीय स्थान में संक्रान्त (आगम से जानने योग्य) पदार्थों का व्याख्यान करने वाले अज्ञानी रागी-द्वेषी का विश्वास कैसे किया जा सकता है? जैसे जन्म से अन्धे पुरुष का रूप विशेषों के वर्णन करने में विश्वास नहीं किया जा सकता है। अर्थात् रागी-द्वेषी, तत्त्व को नहीं जानने वाले व्याख्याता का विश्वास नहीं किया जा सकता है। अतीन्द्रिय अर्थ को जानने वाले मनु, ब्रह्मा आदि भी राग-द्वेष से रहित नहीं हैं, सर्वदा दोषों से युक्त हैं। अतः विश्वासी होने से ब्रह्मा, मनु आदि के द्वारा कथित वेद का व्याख्यान प्रमाणीभूत हो, ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि इनका पूर्व में खण्डन किया है। ___अविश्वसनीय पुरुष के व्याख्यान में प्रवृत्ति करना असत्य ही है। जैसे- नदी के तीर पर फल हैं। ऐसा लौकिक वचन असत्य है। अर्थात् जैसे कोई लौकिक अविश्वसनीय पुरुष कहता है कि नदी के तीर पर फल हैं, उस पुरुष का कोई विश्वास नहीं करता है, उसी प्रकार अविश्वसनीय पुरुष का वेद का व्याख्यान विश्वास करने योग्य नहीं है। . अपौरुषेय वेद का वाक्य असत्य अर्थ को कैसे भी नहीं कहता है- इस प्रकार का विप्रतिषेध मीमांसक दे रहे हैं। जिससे अपौरुषेय वेदवाक्य असत्य नहीं हो सके। इस पर आचार्य कहते हैं कि यहाँ विप्रतिषेध नाम का विरोध नहीं है अर्थात् अपौरुषेय वचन भी असत्य अर्थ को कह सकते हैं। क्योंकि एक शब्द के अनेक अर्थ होने से अज्ञानी उसका विपरीत अर्थ कर सकते हैं। जैसे 'स्वर्गकामा अग्निहोत्रं जुह्यात्' इस का अर्थ- अग्निहः (कुत्ता) ओत्रं (मांस) जुह्यात् (खावे)। स्वर्ग का इच्छुक प्राणी कुत्ते का मांस खावे, ऐसा विपरीत अर्थ भी हो सकता है। शक्तिवाले अनेक विरुद्ध पदार्थों के विरोध करने को विप्रतिषेध कहते हैं। विप्रतिषेध वाले दो पदार्थ एक जगह रह नहीं सकते हैं। जहाँ घट है वहाँ घटाभाव नहीं, और जहाँ घटाभाव है वहाँ घट नहीं। एक की विधि से दूसरे का निषेध, दूसरे की विधि से एक का निषेध।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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