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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 61 तेनैव व्यभिचारीदमिति चेत्, न परोपदेशानपेक्षत्वविशेषणात् / तदसिद्ध धर्माद्युपदेशस्य सर्वदा परोपदेशपूर्वकत्वात् / तदुक्तं / धर्मे चोदनैव प्रमाणं नान्यत् / किं च। नेन्द्रियमिति कशित् / तत्र केयं चोदना नाम? क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमिति चेत् तत् पुरुषेण व्याख्यातं स्वतो वा क्रियायाः प्रवर्तकं श्रोतुः स्यात्? न तावत्स्वत एवाचार्यचोदितः करोमीति हि दृश्यते न वचनचोदित इति। नन्वपौरुषेयाद्वचनात्प्रवर्तमानो वचनचोदितः करोमीति प्रतिपद्यते, पौरुषेयादाचार्यचोदित इति विशेषोऽस्त्येवेति चेत् / स्यादेवं यदि मेघध्वानवदपौरुषेयं वचनं पुरुषप्रयत्ननिरपेक्षं प्रवर्तकं क्रियायाः प्रतीयेत, न च प्रतीयते / सर्वदा पुरुषव्यापारापेक्षत्वात्तत्स्वरूपलाभस्य / पुरुषप्रयत्नोभिव्यंजकस्तस्येति चेन्नैकांतनित्यस्याभिव्यक्त्यसंभवस्य समर्थितत्वात् / शंका - किसी विद्वान् के द्वारा उपदिष्ट पदार्थ के ज्ञान में हेतु और इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है अत: सामान्य विद्वान् के उपदेश में इन्द्रिय और हेतु की अपेक्षा न होने से यह व्यभिचारी (अनैकान्तिक) हो जाता है- अर्थात् सर्वज्ञ के ज्ञान में और सामान्य विद्वान् में, इन दोनों में जाता है। उत्तर - सर्वज्ञ के ज्ञान में परोपदेश की भी अपेक्षा नहीं है, यह विशेषण दिया गया है। __ अर्थात् निष्णात विद्वान् के उपदेश में मूल कारण सर्वज्ञ का उपदेश है क्योंकि सर्वज्ञ के द्वारा कथित पदार्थों का ही आगमदर्शी अनुभवी विद्वान् कथन करते हैं। अतः परोपदेश, लिंगाक्षादि से रहित साक्षात् सूक्ष्मादि पदार्थों को जानकर कहने वाले सर्वज्ञ के वचन ही सत्य हैं। कोई (मीमांसक) कहता है-सर्वज्ञ का ज्ञान परोपदेश की अपेक्षा से रहित है, यह परोपदेश- रहितत्व हेतु असिद्ध हेत्वाभास है क्योंकि “धर्मोपदेश (सदा परोपदेशपूर्वक ही होते हैं, हमारे ग्रन्थ में भी लिखा है कि धर्मोपदेश) में चोदना (वेद का प्रेरणा वाक्य) ही प्रमाण है, इन्द्रिय हेतु अतीन्द्रिय आदि ज्ञान प्रमाण नहीं है। (ज्ञापक नहीं है)" जैनाचार्य पूछते हैं- धर्मोपदेश में वेद का प्रेरणा वाक्य क्या है? यदि क्रिया- यज्ञ, भावना, पूजा आदि में प्रवर्तक (प्रवृत्ति कराने वाले) वचन को प्रेरणा वाक्य कहते हो तो पुरुष के द्वारा कथित प्रेरणा वाक्य श्रोता को क्रियाओं में प्रवृत्ति कराता है- कि पुरुष के द्वारा अकथित स्वतः ही प्रेरणा वाक्य श्रोता को क्रियाओं में प्रवृत्त कराता है। पुरुष के द्वारा अव्याख्यात उच्चारण मात्र से ही वेदवाक्य स्वयमेव श्रोता को यज्ञादि क्रियाओं में प्रवृत्त कराता है, ऐसा कहना तो उचित नहीं है- क्योंकि “आचार्य के द्वारा प्रेरित होकर मैं पूजा कर रहा हूँ, अनुष्ठान कर रहा हूँ, 'सर्व स्थानों पर देखा जाता है-" केवल वचन सुनकर ही इस कार्य में प्रवृत्त होता हूँ- ऐसा नहीं देखा जाता है। .. मीमांसक कहता है- अपौरुषेय वेदवचनों को सुनकर प्रवृत्ति करने वाला यह समझता है कि मैं वचनों से प्रेरित होकर वेदविहित क्रिया कर रहा हूँ और पुरुष के द्वारा रचित वचनों को सुनकर क्रिया में प्रवृत्ति करने वाला श्रोता जानता है कि मैं आचार्य के वचनों से प्रेरित होकर दान आदि क्रिया कर रहा हूँ। लौकिक वचन और वैदिक वचनों के उपदेश में यह विशेषता है ही। जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसक का यह कथन तब घटित हो सकता है जब मेघध्वनि के समान किसी पुरुष के द्वारा बिना रचित वचनों में, पुरुषों के प्रयत्न बिना ही क्रिया में प्रवर्तक की प्रतीति हो। परन्तु बिना प्रयत्न, वचनों में प्रवृत्ति होती हुई प्रतीत नहीं होती है। क्योंकि पदार्थों को कहने वाले उन वचनों की उत्पत्ति (अपने स्वरूप की प्राप्ति) सदैव पुरुष के व्यापार की अपेक्षा रखती है। प्रश्न - शब्द नित्य है, अतः पुरुष का प्रयत्न वचन का अभिव्यञ्जक है- अर्थात् पुरुष का प्रयत्न शब्द का उत्पादक नहीं है- क्योंकि शब्द नित्य है किन्तु पुरुष का प्रयत्न शब्द का अभिव्यञ्जक है। उत्तर - जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसक का यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि एकान्त से कूटस्थ नित्य शब्द की अभिव्यक्ति होना संभव नहीं है, इसका समर्थन पूर्व में किया है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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