SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-६० सूक्ष्माद्यर्थोपदेशस्यासिद्धं। सिद्धमप्येतदनर्थकं तत् साक्षात्कर्तृपूर्वकत्वसामान्यस्य साधयितुमभिप्रेतत्वान्न वा सर्वज्ञवादिनः सिद्धसाध्यता, नापि साध्याविकलत्वादुदाहरणस्यानुपपत्तिरित्यन्ये / तेऽपि स्वमतानपेक्षं ब्रुवाणा न प्रतिषिध्यंते परानुरोधात्तथाभिधानात्। स्वसिद्धांतानुसारिणां तु सफलमक्षानपेक्षत्वविशेषणमित्युक्तमेव / तदनुमातृपूर्वकसूक्ष्माद्यर्थोपदेशेनाक्षानपेक्षावितथत्वमनैकांतिकमित्यपि न शंकनीयं। लिंगानपेक्षत्वविशेषणात् / न चेदमसिद्धं परोपदेशपूर्वके सूक्ष्माधर्थोपदेशे लिंगानपेक्षावितथत्वप्रसिद्धः। , में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं मानेंगे तो किसी भी रूपादि ज्ञान में इन्द्रियों की अपेक्षा का अयोग होगा . अर्थात् किसी भी समय में होने वाला रूपादि का ज्ञान इन्द्रियनिरपेक्ष ही होगा। अतः किसी पुरुष के एक समय में सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट अर्थों का प्रत्यक्ष जानना इष्ट है तो वह ज्ञान आपको इन्द्रिय-मन-निरपेक्ष ही मानना पड़ेगा, इसलिए सूक्ष्मादि पदार्थों के उपदेशक (जानने वाले) के इन्द्रियनिरपेक्ष विशेषण असिद्ध भी नहीं है। अर्थात् सर्वज्ञ भगवान इन्द्रिय और मन के बिना सर्व पदार्थों को एक साथ जानते हैं, यह सिद्ध होता है। ___ कोई (मीमांसक) कहता है कि पूर्वोक्त अनुमान द्वारा सूक्ष्म आदि पदार्थों का सामान्य रूप से साक्षात् करने वाले को सिद्ध करना अभिप्रेत (इष्ट) होने से सर्वज्ञदेव के अतीन्द्रिय ज्ञान की सिद्धि भी निष्फल है। अथवा सर्वज्ञवादियों के सिद्धसाध्यता भी नहीं है। और साध्याविकल (साध्य से रहित न) होने से उदाहरण की अनुत्पत्ति भी नहीं है। ऐसा कोई अन्य कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि जैन सिद्धान्त के अनुसार कथन करने वाले होने से अपने सिद्धान्त की अपेक्षा न करके बोलने वाले मीमांसकों का हम खण्डन नहीं कर रहे हैं। अर्थात् योग, वेदाध्ययन आदि संस्कारों से संस्कारित इन्द्रियों के द्वारा ही सूक्ष्म अर्थों का ज्ञान हो जाता है- ऐसे अन्य वादियों के अनुरोध करने पर ही सूक्ष्म आदि के उपदेश में इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रहती, यह विशेषण हमने दिया है। जो मीमांसक परमाणु आदि का प्रत्यक्ष होना ही नहीं मानते हैं और अपने वैदिक सिद्धान्त के अनुसार चलते हैं, उनके प्रति (अक्षानपेक्षत्वविशेषणं सूक्ष्माद्यर्थोपदेशस्यासिद्धं न) इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखना रूप विशेषण अवश्य ही सफल है। इसीलिए इन्द्रियानपेक्ष विशेषण हेतु में कह दिया है। अनुमानपूर्वक सूक्ष्मादि पदार्थों का उपदेश देने वाले होने से इन्द्रियों की अपेक्षा न रखना, यह हेतु सत्य होने से यह अनैकान्तिक है यह शंका भी नहीं करनी चाहिए। "अर्थात्- परमाणु, पुण्य, पाप आदि का अनुमान करने वाले वक्ता भी इन्द्रियों की अपेक्षा (सहायता) के बिना परमाणु आदि का सत्य उपदेश देते हैं- अत: आपका सर्वज्ञ के ज्ञान को सिद्ध करने के लिए दिया गया इन्द्रियानपेक्षत्व हेतु अनैकान्तिक है- क्योंकि मुख्य प्रत्यक्ष में और अनुमान इन दोनों में जाता है। आचार्य कहते हैं- हमारा इन्द्रियानपेक्ष हेतु अनैकान्तिक नहीं है।" क्योंकि लिंग (अनुमान) की अपेक्षा नहीं रखना यह विशेषण दिया गया है। सर्वज्ञ के ज्ञान में लिंग की भी अपेक्षा नहीं है। लिंग और इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखना, यह हेतु असिद्ध भी नहीं है- क्योंकि परोपदेशपूर्वक आगम से ज्ञात सूक्ष्मादि पदार्थों के उपदेश में लिंग की अपेक्षा नहीं होने पर भी उनमें सत्यपने की प्रसिद्धि है। 1. अनुमान वा किसी ज्ञान के द्वारा सिद्ध हुए को सिद्ध करना सिद्धसाध्यता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy