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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-५९ नन्वेवं "शष्कु लीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपंचकं मनोऽक्षानपेक्षं सकृद्रूपादिपंचकपरिच्छेदकत्वाद्यन्नैवं तत्रैवं दृष्टं यथान्यत्र क्रमशो रूपादिज्ञानं, न च तथेदमतोऽक्षमनोनपेक्षम्" इत्यप्यनिष्टं सिद्धेयदिति मा मंस्था: साधनस्यासिद्धत्वात्, परस्यापि हि नैकांतेन शष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपंचकस्य सकृद्रूपादिपंचकपरिच्छेदकत्वं सिद्धं / सोपयोगस्यानेकज्ञानस्यैकत्रात्मनि क्रमभावित्ववचनात् / शक्तितोऽनुपयुक्तस्य योगपद्यस्य प्रसिद्धः। प्रतीतिविरुद्धं चास्याक्षमनोऽनपेक्षत्वसाधनं तदन्वयव्यतिरेकानुविधायितया तदपेक्षत्वसिद्धरन्यथा कस्यचित्तदपेक्षत्वायोगात्। ततः कस्यचित् सकृत्सूक्ष्माधर्थसाक्षात्करणमिच्छता मनोऽक्षानपेक्षमेषितव्यमिति नाक्षानपेक्षत्वविशेषणं प्रश्न - जिस प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान मन की अपेक्षा बिना एक समय में सर्व पदार्थों को जानता है, ऐसा अनुमान से सिद्ध होता है- वैसे ही एक समय में रूप-रसादि पाँचों का परिच्छेदक (ज्ञायक) होने से पूड़ी कचौड़ी आदि को भक्षण करते समय होने वाले रूपादि ज्ञान पंचक भी इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं रखते हैं- क्योंकि जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रहित नहीं है- वह ज्ञान एक समय में रूपादि पाँचों को नहीं जान सकता- जैसे अन्य स्थलों में होने वाला ज्ञान क्रमशः रूपादि को जानता है, परन्तु पूड़ी आदि का भक्षण करते समय होने वाला रूपादि (पंच) का ज्ञान क्रम से नहीं होता है- इसलिए यह रूपादि पंच का एक साथ होने वाला ज्ञान इन्द्रिय मन की अपेक्षा रखने वाला नहीं है। - 'उत्तर - इस प्रकार का हेतु अनिष्ट को सिद्ध करने वाला है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि रूपादि पाँचों को एक साथ विषय करने वाला हेतु पक्ष में नहीं रहने से असिद्ध हेत्वाभास है। क्योंकि जैनधर्म में एकान्त से शष्कुली (पूड़ी) आदि के भक्षण करते समय रूपादि ज्ञान पंचक के एक ही समय में रूपादि पाँचों के परिच्छेदकत्व (ज्ञायकत्व) सिद्ध नहीं है। जैन सिद्धान्त में उपयोग-आत्मक ज्ञान एक आत्मा में क्रम से ही होता है। अर्थात् उपयोग में एक समय में एक ही ज्ञान रहता है और इन्द्रियाँ भी एक समय में एक ही विषय को ग्रहण करती हैं- पाँचों इन्द्रियाँ एक साथ विषयों में प्रवृत्ति नहीं कर सकतीं। परन्तु उपयोग रहित लब्धि-आत्मक रूपादि पाँच ज्ञान अनेक व्यक्तियों के जानने की शक्ति की अपेक्षा युगपत् हो सकते हैं। अर्थात् रूपादि पाँचों ज्ञान एक साथ होते हैं- इसमें अनेकान्त है, उपयोगात्मक की अपेक्षा नहीं होते, शक्ति की अपेक्षा होते हैं। उपयोग रहित ज्ञानों का शक्तिरूप से युगपत् हो जाना प्रसिद्ध है। (नैयायिक जो यह कहते हैं कि) कचौड़ी आदि को खाते समय होने वाले ज्ञान के इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं है, ऐसा कहना प्रतीति (लोक) विरुद्ध है। क्योंकि इन्द्रियों के होने पर पाँच ज्ञान (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द) होते हैं, इन्द्रियों के नहीं होने पर नहीं होते हैं- अतः इन्द्रियों के साथ अन्वय-व्यतिरेक है। जैसे कचौड़ी आदि खाते समय होने वाले रूपादि ज्ञान में इन्द्रियों की अपेक्षा सिद्ध ही है। यदि इन्द्रियों के साथ अन्वय-व्यतिरेक होते हुए भी कचौरी आदि खाते समय रूपादि पाँच ज्ञानों
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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