________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 57 योगजधर्मानुगृहीतं युगपत्सर्वार्थसाक्षात्करणक्षममिष्टमिति चेत् / कथमणोर्मनसः सर्वार्थसंबंधः सकृदुपपद्यते? दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ सकृच्चक्षुरादिभिस्तत्संबंधप्रसक्तेः, रूपादिज्ञानपंचकस्य क्रमोत्पत्तिविरोधात् / क्रमशोऽन्यत्र तस्य दर्शनादिह क्रमपरिकल्पनायां सर्वार्थेषु योगिमनःसंबंधस्य क्रमकल्पनास्तु। .... सर्वार्थानां साक्षात्करणसमर्थस्येश्वरविज्ञानस्यानुमानसिद्धत्वात्तैरीशमनसः सकृत्संबंधसिद्धिरिति चेत् / रूपादिज्ञानपंचकस्य कचिद्योगपद्येनानुभवादनीशमनसोऽपि सकृच्चक्षुरादिभिः संबंधोऽस्तु कुतशिद्धर्मविशेषात्तथोपपत्तेः। तादृशो धर्मविशेषः कुतोऽनीशस्य सिद्ध इति चेत्, ईशस्य कुतः? सकृत्सर्वार्थज्ञानात्तत्कार्यविशेषादिति चेत्, तर्हि सकृद्रूपादिज्ञानपंचकात् जैनाचार्य कहते हैं- अणु प्रमाण लघु मन का एक साथ सर्व पदार्थों से सम्बन्ध कैसे हो सकता है? तथा एक साथ सर्व पदार्थों के साथ मन का सम्बन्ध मान लेने पर कचौरी आदि के खाते समय एक साथ चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा सम्बन्ध का प्रसंग आयेगा। अर्थात् कचौरी खाते समय उसका रूप आँखों से, स्वाद जिह्वा से, गन्ध नाक से, स्पर्श शरीर से और शब्द कानों से इस प्रकार एक साथ पाँचों इन्द्रियों के ज्ञान का प्रसंग आयेगा और ऐसी दशा में पाँचों इन्द्रियों का ज्ञान क्रम से उत्पन्न होता है, इस मान्यता का विरोध आयेगा। अर्थात् जैन और नैयायिक दोनों पाँचों इन्द्रियों का ज्ञान एक साथ न मानकर क्रम से ही मानते हैं। . “यदि अन्यत्र (घट-पट आम्रादि में) उस ज्ञान का क्रम से दर्शन होने से (दृष्टिगोचर होने से) कचौरी आदि के खाने के समय भी क्रम से कल्पना करने पर तो योगियों के मन का भी सर्व पदार्थों के साथ सम्बन्ध क्रम से होता है ऐसा मानना पड़ेगा।" यदि कहो कि सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करने में समर्थ ईश्वरज्ञान की अनुमान से सिद्धि हो जाने से, उस अनुमान के द्वारा, ईश्वर के मन का सर्व पदार्थों के साथ एक समय में सम्बन्ध सिद्ध होता है तो कहीं पर रूपादि पाँचों का एक साथ अनुभव होने से ईश्वर को छोड़कर सामान्य पुरुषों के मन का भी एक साथ चक्षु आदि पाँचों ज्ञानों से सम्बन्ध होगा। साधारण मनुष्यों के भी कुतश्चित् धर्मविशेष की इस प्रकार की उत्पत्ति होने से। नैयायिक कहता है - एक समय में पाँचों इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध का कारणभूत धर्म (पुण्य) विशेष अनीश (साधारण मनुष्य) के कैसे सिद्ध हो सकता है? जैन इस प्रकार कहने वाले नैयायिक से पूछते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थों से एक साथ सम्बन्ध रखने में कारणभूत पुण्य विशेष ईश्वर के पास है, यह कैसे जाना जा सकता है (अर्थात् ईश्वर के पास ऐसा पुण्य विशेष है जिससे इन्द्रियाँ सम्पूर्ण पदार्थों के साथ एक समय में सम्बन्ध कर लेती हैं, यह कैसे जाना जा सकता है।) यदि नैयायिक कहे कि “ईश्वर सम्पूर्ण पदार्थों को एक समय में जानता है, इस कार्यविशेष से उस ईश्वर के कारण विशेष पुण्य का ज्ञान हो जाता है तो हम भी कह सकते हैं कि एक साथ रूपादि पाँच ज्ञान रूप कार्य विशेष (कचौड़ी खाते समय रूपादि पाँचों ज्ञान रूप कार्यविशेष) से अनीश के भी पाँचों ज्ञान होने में कारणभूत कुछ धर्म (पुण्य) विशेष है- यह बात अनुमान से सिद्ध क्यों नहीं होगी।