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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-५६ सर्वज्ञविज्ञानस्याप्यक्षजत्वादसिद्धं विशेषणमित्यपरः। सोप्यपरीक्षक : / सकलार्थसाक्षात्करणस्याक्षजज्ञानेनासंभवात्, धर्मादीनाम:रसंबंधात्। स हि साक्षान्न युक्तः पृथिव्याद्यवयविवत् / नापि, परंपरया रूपरूपित्वादिवत् स्वयमनुमेयत्ववचनात्। योगजधर्मानुगृहीतान्यक्षाणि सूक्ष्माद्यर्थे धर्मादौ प्रवर्तन्ते महेश्वरस्येत्यप्यसारं स्वविषये प्रवर्तमानानामतिशयाधानस्यानुग्रहत्वेन व्यवस्थिते:, सूक्ष्माद्यर्थेऽक्षाणामप्रवर्तनात्तदघटनात्। यदि पुनस्तेषामविषयेऽपि प्रवर्तनमनुग्रहस्तदैकमेवेंद्रियं सर्वार्थं ग्रहीष्यतां / सत्यमंत:करणमेकं नैयायिक कहता है- सर्वज्ञ विज्ञान के भी इन्द्रियजन्यत्व होने से 'इन्द्रियानपेक्ष' यह विशेषण असिद्ध है। जैनाचार्य कहते हैं कि - सर्वज्ञ के ज्ञान को इन्द्रियजन्य कहने वाला नैयायिक परीक्षक नहीं है- क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान के द्वारा सकल पदार्थों का साक्षात् करने की असंभवता है- क्योंकि धर्मादि द्रव्यों का इन्द्रियों के द्वारा सम्बन्ध नहीं हो सकता। . . नैयायिकों ने सम्बन्ध दो प्रकार का माना है, साक्षात् सम्बन्ध (जिसके साथ इन्द्रियों का व्यवधान रहित सम्बन्ध होता है, वह साक्षात् सम्बन्ध है। जैसे घट-पट आदि के जानने में इन्द्रियों का सम्बन्ध।) और परम्परा सम्बन्ध (व्यवधान डाल कर जो सम्बन्ध होता है- वह परम्परा सम्बन्ध है जैसेचक्षु का सम्बन्ध घट से, फिर घट में रहने वाले रूप के साथ सम्बन्ध।) / जैसे पृथ्वी आदि अवयवी द्रव्यों में इन्द्रियों का साक्षात् सम्बन्ध होता है, उस प्रकार धर्म (पुण्य पाप), विप्रकृष्ट, व्यवहित आदि पदार्थों के साथ इन्द्रियों का साक्षात् सम्बन्ध तो युक्त नहीं है (क्योंकि आधुनिक पुरुषों की इन्द्रियों का सम्बन्ध धर्मादिक के साथ नहीं है) रूप तथा रूपत्व के समान धर्मादिक के साथ इन्द्रियों का परम्परा से भी सम्बन्ध नहीं है क्योंकि नैयायिकों ने पुण्य-पाप, परमाणु आदि को अनुमान प्रमाण से जानने योग्य स्वीकार किया है। वे बहिरंग इन्द्रियों के गोचर नहीं हैं। वैशेषिक का कथन - "योगज धर्म (समाधि) से अनुगृहीत महेश्वर की चक्षु आदि इन्द्रियाँ सूक्ष्म परमाणु आदि, विप्रकृष्ट राम रावण आदि, व्यवहित मेरु आदि पदार्थों में और पुण्य-पाप आदि धर्म में प्रवृत्ति करती है, अर्थात् इनको जानती है ? जैनाचार्य का उत्तर : इस प्रकार वैशेषिक का कहना सारभूत नहीं है- क्योंकि अनुग्रह करने वाले सहकारी कारण अपने विषय में प्रवृत्ति करने वाले कारणों में विशेषताओं की स्थापना करते हैं। परन्तु सूक्ष्मादि पदार्थों में प्रवृत्ति नहीं होती अतः योगज धर्म से अनुगृहीत इन्द्रियाँ सूक्ष्मादि पदार्थों में प्रवृत्ति नहीं कर सकतीं। यदि फिर भी योगज धर्म से अनुगृहीत महेश्वर की इन्द्रियाँ भविष्य में प्रवृत्ति करेंगी- तब तो एक ही इन्द्रिय सर्व पदार्थों को ग्रहण कर लेगी, भिन्न-भिन्न रूपादि विषयों को ग्रहण करने वाली भिन्न-भिन्न इन्द्रियों को मानने की आवश्यकता नहीं रहेगी। नैयायिक कहते हैं कि “एक इन्द्रिय सर्व पदार्थों को ग्रहण कर लेगी" यह जैनों का कहना ठीक ही है, क्योंकि योगज धर्म से अनुगृहीत अन्त:करण (मन) एक साथ सर्व पदार्थों को साक्षात् करने में समर्थ है, यह इष्ट ही है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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