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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-५१ साध्यधर्मः पुनः प्रतिज्ञार्थंक देशत्वान्न हेतुर्धर्मिणा व्यभिचारात् / किं तर्हि स्वरूपासिद्धत्वादेवेति न प्रतिज्ञार्थंकदेशो नाम हेत्वाभासोऽस्ति योऽत्राशंक्यते। श्रावणत्वादिवदसाधारणत्वादनैकांतिकोऽयं हेतुरिति चेन्न असाधारणत्वस्यानैकांतिकत्वेन व्याप्त्यसिद्धेः। सपक्षविपक्षयोर्हि हेतुरसत्त्वेन निशितोऽसाधारणः संशयितो वा? निमितशेत् कथमनैकांतिकः? पक्षे साध्यासंभवे अनुपपद्यमानतयास्तित्वेन निश्चितत्वात् संशयहेतुत्वाभावात् / न च सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन निशिते पक्षे साध्याविनाभावित्वेन निशेतुमशक्यः सर्वानित्यत्वादौ नहीं हो सकता) अन्वयी नहीं होने से सदोष है ऐसा कहना प्रलाप मात्र है वा अकिंचित्कर है। (अर्थात् इससे कुछ फल की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि अन्वय दृष्टान्त के बिना भी हेतु से साध्य की सिद्धि होती है जैसे कृत्तिका उदय रूप हेतु महर्त्त के बाद रोहिणी नक्षत्र के उदय को सिद्ध करता ही है।) यदि प्रतिज्ञाअर्थ का एकदेश होने से साध्य धर्म हेतु नहीं हो सकता, इस कथन में पक्ष के साथ व्यभिचार आता है- अर्थात् जैसे साध्य धर्महेतु प्रतिज्ञा के एकदेश है उसी प्रकार पक्षहेतु भी प्रतिज्ञा का एकदेश हेतु है। ... प्रश्न- तो फिर यहाँ क्या करना चाहिए? उत्तर- यदि प्रतिज्ञा के विषय असिद्ध हैं तो वहाँ स्वरूपासिद्ध नामक हेत्वाभास से असिद्धता उठानी चाहिए। (पक्ष में हेतु के न रहने को स्वरूपासिद्ध कहते हैं।) असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिंचित्कर ये चार हेत्वाभास हैं, यहाँ पर जिस हेत्वाभास की शंका कर रहे हैं, वह 'प्रतिज्ञार्थंकदेश- असिद्ध' नामका तो कोई हेत्वाभास है ही नहीं। शंका- जैसे शब्द का अनित्य सिद्ध करने के लिए दिया गया श्रावणत्व हेतु अनित्य घटादि सपक्ष में और नित्य आकाश आदि विपक्ष में नहीं रहने से असाधारण है, उसी प्रकार यह मोक्षमार्गत्व हेतु सपक्ष और विपक्ष में न रहने से असाधारण हेत्वाभास है? उत्तर- नैयायिकों का ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि जोजो असाधारण होता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है, यह व्याप्ति सिद्ध नहीं है। जैन, नैयायिकों का पक्ष लेने वाले बौद्धों से पूछते हैं कि आप सपक्ष और विपक्ष में निश्चयरूप में नहीं रहने वाले हेतु को असाधारण कहते हो कि संशय रूप से नहीं रहने वाले हेतु को असाधारण कहते हो? यदि सपक्ष और विपक्ष में नहीं रहने का निश्चय होने से निश्चितासाधारण हेत्वाभास होता है, तब तो असाधारण को अनैकान्तिक हेत्वाभास कैसे कह सकते हैं क्योंकि साध्य के अभाव में निश्चित रूप से अनुपपद्यमान और केवल पक्ष में रहने वाला हेतु संशयित नहीं हो सकता, अर्थात् उस हेतु में संशय का अभाव है। तथा जो सपक्ष और विपक्ष में नहीं रहता है उस हेतु का पक्ष में साध्य के साथ अविनाभाव होने से रहता है, ऐसा निश्चय नहीं किया जा सकता; ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो (सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्) सर्व वस्तु को अनित्यपना सिद्ध करने के लिए दिया गया सत्त्वादि हेतुओं के भी असिद्धत्व का (अहेतुत्व) प्रसंग 1. नैयायिकों ने अनैकान्तिक हेत्वाभास के तीन भेद किये हैं। साधारण, असाधारण, अनुपसंहारी। सपक्ष विपक्ष दोनों में रहने वाले हेतु को साधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। सपक्ष, विपक्ष दोनों में नहीं रहने वाले को असाधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। केवलान्वयी दृष्टान्त वाले हेतु को अनुपसंहारी अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। जैनाचार्य 'असाधारण' हेत्वाभास मानते ही नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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