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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-५२ सत्त्वादेरहेतुत्वप्रसंगात्, न हि सत्त्वादिर्विपक्ष एवासत्त्वेन निशितः सपक्षेऽपि तदसत्त्वनिश्चयात् / सपक्षस्याभावात्तत्र सर्वानित्यत्वादी साध्ये सत्त्वादेरसत्त्वनिश्शयानिशयहेतुत्वं न पुनः श्रावणत्वादेस्तद्भावेपीति चेत्। ननु श्रावणत्वादिरपि यदि सपक्षे स्यात्तदा तं व्याप्नुयादेवेति समानांतर्व्याप्तिः। सति विपक्षे धूमादिश्चासत्त्वेन निश्चितो निश्शयहेतुर्माभूत्। विपक्षे सत्यसति वाऽसत्त्वेन निक्षितः साध्याविनाभावित्वाद्धेतुरेवेति चेत्, सपक्षे सत्यसति वा सत्त्वेन निर्णीतो हेतुरस्तु ततएव ऽसपक्षे तदेकदेशे वाऽसन् कथं हेतुरिति चेत्; सपक्षे असन्नेव हेतुरित्यनवधारणात् / विपक्षे तदसत्त्वानवधारणमस्त्वित्ययुक्तं साध्याविनाभावित्वव्याघातात् / आयेगा, क्योंकि सत्त्व आदि हेतु विपक्ष में नहीं रहते हैं, यह निश्चित है। इतना ही नहीं, ये सत्त्व कृतकत्व आदि हेतु सपक्ष में भी नहीं रहते हैं यह भी निश्चित है। (अर्थात् सर्व पदार्थों को क्षणिक सिद्ध करने के लिए दिये गये सत्त्वादि हेतु भी सपक्ष और विपक्ष में नहीं रहने से असाधारण हैं, ऐसा हम कह सकते हैं।) - बौद्ध कहते हैं कि सर्व पदार्थों को क्षणिक सिद्ध करने में दिये गए सत्त्वादि हेतु के सपक्ष का अभाव होने से सपक्ष में नहीं रहना निश्चित ही है, परन्तु शब्द को अनित्य सिद्ध करने में दिये गये श्रवणत्व हेतु के तो सपक्ष का सद्भाव होने पर भी सपक्ष में नहीं रहने से असाधारणत्व है? जैन कहते हैं यदि सपक्ष का सद्भाव न होने से सत्व हेतु सपक्ष में नहीं रहता है तो शब्द को अनित्य सिद्ध करने के लिए दिये गये श्रावणत्व आदि हेतु भी यदि सपक्ष में रहते होते तो उस समय अवश्य सपक्ष में रहने वाले साध्य को व्याप्त कर लेते परन्तु उस समय पक्ष के अन्तर्गत सपक्ष व्याप्त है। अर्थात् जिस प्रकार बौद्धों ने सर्व पदार्थों को पक्ष बनाकर सपक्ष को उसके अन्तर्गत व्याप्त किया है, उसी प्रकार सर्व शब्दों को पक्ष बना कर सपक्ष को उसमें अन्तर्व्याप्त करके श्रावणत्व को हेतु बना लेते हैं। इसलिए हमारी और तुम्हारी अन्तर्व्याप्ति समान है। यदि सपक्ष के सर्वथा न होने पर तो सपक्ष में हेतु का नहीं रहना गुण हो और सपक्ष के रहने पर सपक्ष में हेतु का नहीं रहना दोष हो तब तो धूमादि हेतु के विपक्ष में न रहने का निश्चय भी निश्चय रूप से धूमादि के हेतुत्व की सिद्धि नहीं कर सकेगा। अर्थात् जिस प्रकार सब को पक्ष स्वीकार कर लेने पर विपक्ष नहीं है उसी प्रकार "सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्" इस हेतु में विपक्ष भी कोई नहीं हैं अत: यह हेतु सदोष होना चाहिए। ___बौद्ध कहती हैं- विपक्ष का अस्तित्व हो या न हो “साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला होने से हेतु का विपक्ष में नहीं रहना ही सद्धेतुपना है।" जैन कहते हैं- जिसप्रकार साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने से विपक्ष में नहीं जाने से हेतु समीचीन है, विपक्ष होवे चाहे न होवे उसी प्रकार, साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला होने से सपक्ष में सत्त्व का निश्चय है ही, सपक्ष होवे चाहे न होवे, वह हेतु समीचीन है। बौद्ध कहते हैं- सारे सपक्ष और सपक्ष के एकदेश (दृष्टान्तादि) में नहीं रहने वाला हेतु समीचीन कैसे हो सकता है? जैनाचार्य कहते हैं- “सपक्ष में हेतु नहीं ही रहना चाहिए" ऐसी अवधारणा (नियम) नहीं है अर्थात् सपक्ष में हेतु रहे तो अच्छा है और नहीं रहे तो कोई हानि नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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