________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -50, प्रतिज्ञाथैकदेशो हेतुरिति चेत् / कः पुनः प्रतिज्ञार्थस्तदेकदेशो वा? साध्यधर्मधर्मिसमुदायः प्रतिज्ञार्थस्तदेकदेशः साध्यं धर्मो यथाऽनित्यः शब्दोऽनित्यत्वादिति, धर्मी वा तदेकदेशो यथा नश्वरः शब्दः शब्दत्वादिति, सोऽयं हेतुत्वेनोपादीयमानो न साध्यसाधनायालं स्वयमसिद्धमिति चेत् / कथं धर्मिणोऽसिद्धता 'प्रसिद्धो धर्माति' वचनव्याघातात्। सत्यं। प्रसिद्ध एव धर्मीति चेत् स तर्हि हेतुत्वेनोपादीयमानोऽपि न स्वयमसिद्धो यतो न साध्यं साधयेत् / स हेतुस्तदन्वयः स्यात् धर्मिणोऽन्यत्रानुगमनाभावादिति चेत् सर्वमनित्यं सत्त्वादिति धर्मः किमन्वयी येन स्वसाध्यसाधने हेतुरिष्यते? सत्त्वादिधर्मसामान्यमशेषधर्मिव्यक्तिष्वन्वयीति चेत् तथा धर्मिसामान्यमपि, दृष्टांतधर्मिण्यनन्वयः पुनरुभयत्रेति यत्किंचिदेतत् / जैन-"प्रतिज्ञा अर्थ का एकदेश हेतु है अतः असिद्ध है, ऐसा कहो तो उस प्रतिज्ञा के वचन का वाच्य अर्थ क्या है? और क्या है उस प्रतिज्ञा के अर्थ (विषय) का एकदेश? बौद्ध - साध्य रूप धर्म और पक्ष रूपी धर्मी का समुदाय ही प्रतिज्ञावाक्य का विषय है। और उसका एकदेश है साध्य धर्म जैसे शब्द अनित्य है, अनित्य होने से इसमें साध्य को ही हेतु मान लिया गया है अतः प्रतिज्ञा अर्थ का एकदेश हेतु है। कहीं पर प्रतिज्ञा के एकदेश माने गये धर्मी को हेतु बताने पर भी साध्य की सिद्धि नहीं होती है। जैसे कि शब्द नश्वर है शब्द होने से, इस अनुमान में स्वयं शब्दत्व ही जब असिद्ध है तो वह हेतुपने से अनुमान में ग्रहण किया गया होकर साध्य को सिद्ध करने के लिये समर्थ नहीं हो सकता है। जैन- 'प्रसिद्धो धर्मी' धर्मी प्रसिद्ध होता है, इस वचन का व्याघात होने से धर्मी की असिद्धता कैसे हो सकती है? बौद्ध- उत्तर देता है कि- 'धर्मी प्रसिद्ध है' यह कथन सत्य है। जैनाचार्य कहते हैं कि जब धर्मी प्रसिद्ध है तो हेतु स्वरूप से स्वीकार किया हुआ धर्मी भी स्वयं असिद्ध नहीं है जिससे कि साध्य की सिद्धि न कर पावे अर्थात् वह साध्य को अवश्य सिद्ध कर सकेगा। शंका करने वाला बौद्ध कहता है कि धर्मी के सिवाय अन्यत्र अनुगम का अभाव (नहीं पाया जाने वाला हेतु) होने से वह धर्मी हेतु (जहाँ मोक्षमार्गपना है, वहाँ रत्नत्रय का समुदाय है- इसमें धर्मी हेतु) अनन्वय (अन्वय दृष्टान्त से रहित है) दोष से दूषित है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो सर्व पदार्थ क्षणिक हैं सत्व होने से?' सब पदार्थों को क्षणिक सिद्ध करने में दिया गया सत्त्वत्व हेतु भी अन्वय दृष्टान्त से रहित होने से अनन्वय दोष से दूषित है। इसका भी अन्वयी धर्म क्या है जिससे यह हेतु साध्य धर्म के साधन में स्वीकार किया जावे।। यदि कहो कि सत्त्वादि सामान्य धर्म तो हेतु हैं और सम्पूर्ण धर्मी व्यक्ति अन्वयी है। (जैसे जो सत्त्व है, वह अनित्य है कृतकत्व घट पट आदि) तो इस प्रकार धर्मी सामान्य हेतु में भी विशेष धर्मी अन्वयी हो जायेंगे (अर्थात् मोक्षमार्ग रूपत्व हेतु सामान्य रूप से दृष्टान्त धर्मी में पाया जाता है) यदि कहो कि दृष्टान्त धर्मी में उसका अन्वय नहीं है अर्थात् पक्ष से भिन्न दृष्टान्त नहीं पाया जाता है) तो हमारे और आपके दोनों अनुमानों में समानता ही है- फिर आपका अनित्य को सिद्ध करने में दिया गया सत्वत्व हेतु निर्दोष है और हमारे रत्नत्रय के समुदायात्मक में दिया गया मोक्षमार्गत्व हेतु (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक ही मोक्षमार्ग है, अन्यथा मोक्षमार्गत्व 1. साध्य और पक्ष को कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं।