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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 46 ततोऽशेषार्थविशेषाणां साक्षात्करणक्षमः प्रवचनस्याद्यो व्याख्याताभ्युपेयस्तद्विनेयमुख्यश सकलागमार्थस्य परिच्छेदीति तत्संप्रदायाव्यवच्छेदादविरुद्धात्सिद्धोस्मदादेरागमार्थनिश्चयो न पुनरपौरुषेयागमसंप्रदायाव्यवच्छेदात्तत्सूक्तमागमः प्रमाणमिदं सूत्रमिति। ननु च सन्नप्याप्तः प्रवचनस्य प्रणेतास्येति ज्ञातुमशक्यस्तव्यापारादेर्व्यभिचारित्वात् सरागा अपि हि वीतरागा इव चेष्टन्ते वीतरागाश सरागा इवेति कश्चित् / सोप्यसंबद्धप्रलापी। सरागत्ववीतरागत्वनिश्शयस्य कचिदसंभवे तथा वक्तुमशक्तेः / सोयं वीतरागं सरागवच्चेष्टमानं कथंचिनिश्चिन्वन् वीतरागनिश्चयं प्रतिक्षिपतीति कथमप्रमत्तः स्वयमात्मानं कदाचिद्वीतरागं सरागवच्चेष्टमानं संवेदयते न पुनः परमिति चेत् / कुतः ___सम्पूर्ण पदार्थों के प्रेरक वेद के लिङन्त वाक्यों के विषय से अतिक्रान्त, (वेदवाक्य के विधि लिङ् धातु सर्व पदार्थों को विषय करते हैं। अतः उस विधिवाक्य से अतिरिक्त) चतुर्थ स्थान (केवलज्ञान) में संक्रान्त (केवलज्ञान के द्वारा जानने योग्य) कोई पदार्थ विशेष है ही नहीं, इस प्रकार का मीमांसकों का प्रतिवाद भी युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि विधि लिङ्लकार की क्रियावाले वेदवाक्यों से अतीन्द्रिय पदार्थों का सामान्य रूप से भिन्न-भिन्न ज्ञान होने से, सम्पूर्ण पदार्थों के विशेष विशेषांशों का वेदवाक्यों के द्वारा विशद रूप से निश्चय करना शक्य नहीं है। अर्थात् सम्पूर्ण अर्थपर्यायों सहित पदार्थों का विशद ज्ञान वेदवाक्यों से नहीं हो सकता। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों और उनके विशेषों (सम्पूर्ण पर्यायों) को साक्षात् करने में (जानने में) समर्थ सर्वज्ञ भगवान को ही इस प्रवचन के आद्य (प्रथम) व्याख्याता स्वीकार करना चाहिए। और गणधर आदि उनके मुख्य शिष्य सकल आगमार्थ के ज्ञाता होते हैं। इस प्रकार सर्वज्ञ की आम्नाय (परम्परा) का व्यवच्छेद नहीं होने से हम लोगों (जैन लोगों) के आगम के अर्थ का निर्णय निर्बाध सिद्ध होता है परन्तु मीमांसकों के द्वारा स्वीकृत अपौरुषेय आगम (वेद वाक्य) की आम्नाय का व्यवच्छेद न होने पर भी अन्ध परम्परा के समान विज्ञ पुरुषों को आज तक अर्थ का निर्णय नहीं हो सका। इसलिए सुष्ठ कहा है कि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः यह सूत्र आगमप्रमाण स्वरूप है। बौद्ध कहता है कि आप्त की सिद्धि हो जाने पर भी आप्त 'इस शास्त्र का प्रणेता है' यह जानना शक्य नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग के साथ अविनाभाव संबंध रखने वाले व्यापार (वचन, काय की चेष्टा) आदि हेतुओं में व्यभिचार देखा जाता है। कोई सराग भी वीतराग के समान और कोई वीतराग भी सराग के समान चेष्टा करते हैं (इसलिए वीतराग को जानने का कोई साधन नहीं है।) उत्तर- इस प्रकार कहने वाला बौद्ध भी बिना सम्बन्ध के बकवाद करने वाला है अर्थात् इस प्रकार कथन करने वाले को अपने वक्तव्य के पूर्वापरविरोध का विचार नहीं है। जिसे सरागत्व और वीतरागत्व का कहीं भी निश्चय संभव नहीं है, उसका यह सराग वीतराग के समान और यह वीतराग सराग के समान चेष्टा करता है। ऐसा कहना भी अशक्य होगा। क्योंकि सराग के समान चेष्टा करते हुए तथा वीतराग का कथञ्चित् निश्चय करते हुए भी बौद्ध वीतराग के निश्चय का.खण्डन करता है, तो वह बौद्ध अप्रमत्त कैसे है?
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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