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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 47 सुगतसंवित्तिः कार्यानुमानादिति चेत् न, तत्कार्यस्य व्याहारादेर्व्यभिचारित्ववचनात् / विप्रकृष्टस्वभावस्य सुगतस्य नास्तित्वं प्रतिक्षिप्यते बाधकाभावान्न तु तदस्तित्वनिश्चयः क्रियत इति चेत् कथमनिश्चितसत्ताकः स्तुत्यः प्रेक्षावतामिति साश्चर्यं नशेतः। कथं वा संतानांतरक्षणस्थितिस्वर्गप्रापणशक्त्यादेः सत्तानिश्चयः स्वभावविप्रकृष्टस्य क्रियेत? तदकरणे सर्वत्र संशयानाभिमततत्त्वनिश्शयः। संवेदनाद्वैतमत एव श्रेयस्तस्यैव सुगतत्वात् संस्तुत्यतोपपत्तेरित्यपरः। सोऽपि यदि संवेद्याद्याकाररहितं निरंशक्षणिकवेदनं विप्रकृष्टस्वभावं क्रियात्तदा न तत्सत्तासिद्धिः स्वयमुपलभ्यस्वभावं चेन्न तत्र विभ्रमः स्वयमुपलब्धस्यापि निश्चयाभावाद्विभ्रमः स्यादिति चेत् / यदि बौद्ध कहें कि कभी-कभी रागरहित अवस्थाओं में स्वयं को सराग के समान चेष्टा करते हुए अनुभव होता है, दूसरे की आत्मा का नहीं (अर्थात् दूसरे की अतीन्द्रिय आत्मा को हम नहीं जान सकते।) तो तुम सुगत का ज्ञान कैसे करते हो? (अर्थात् सुगत की आत्मा पर है फिर उस इष्ट देवता बुद्ध का ज्ञान तुमको कैसे होता है?) ज्ञानसंतान रूप बुद्ध के उपदेश देना, भावना भाना, आदि कार्य रूप ज्ञापक हेतु के द्वारा अनुमान से बुद्धरूप साध्य का ज्ञान होता है। यदि ऐसा कहोगे तो यह भी उचित नहीं है- क्योंकि वचन बोलना, उपदेश देना आदि कार्य के व्यवहारादि से व्यभिचार आता है- अर्थात् उपदेश देना आदि बुद्ध की चेष्टा रूप क्रियाएँ अज्ञानी मूों में भी पाई जाती हैं। यदि कहो कि बाधक प्रमाण का अभाव होने से न तो विप्रकृष्ट स्वभाव वाले (अतीन्द्रिय) सुगत (बुद्ध) के अस्तित्व का खण्डन किया जाता है और न सुगत के अस्तित्व का अनुमान के द्वारा निश्चय ही किया जाता है तो जिस सुगत की सत्ता का ही निश्चय नहीं है, विद्वान् पुरुष ऐसे असत् पदार्थ की स्तुति कैसे करते हैं? यह हमारे चित्त में आश्चर्य हो रहा है। और स्वभाव से विप्रकृष्ट ज्ञानसंतान तथा पदार्थों की क्षणिकत्व शक्ति एवं अहिंसा दानादि स्वर्ग-प्रापण शक्ति आदि की सत्ता का निश्चय भी कैसे किया जाता है। तथा उस अतीन्द्रिय क्षणिकादि शक्ति के सत्ता का निश्चय न होने पर सम्पूर्ण पदार्थों में संशय होने से सौत्रान्तिक को इष्ट स्वलक्षण, विज्ञान, क्षणिकत्व आदि तत्त्वों का निश्चय भी कैसे हो सकेगा? अर्थात् नहीं हो सकेगा। कोई (योगाचार) कहता है कि- अंतरंग बहिरंग घट, पट, स्वलक्षण, सन्तानान्तर आदि पदार्थों की सिद्धि नहीं होती इसलिए संवदेनाद्वैत मानना ही श्रेयस्कर है, (अर्थात् संवेदन के अतिरिक्त संसार में कोई वस्तु नहीं है) वही वास्तव में सुगत होने से स्तुति करने योग्य है? संवेदन ही सुगत है और वही स्तुत्य है। उत्तर- संवेदनाद्वैत मानने वाला भी यदि ज्ञान को संवेद्यादि आकार रहित (संवेद्य आकार, संवेदक आकार और संवित्ति आकार इन तीनों से रहित) मानेगा और ऐसा क्षण में नष्ट होने वाला अंशों से रहित वह संवेदन, प्रत्यक्ष, अनुमान से जानने योग्य स्वभावों से दूरवर्ती रहता हुआ यदि किया जावेगा तो उस समय उस (संवेदनाद्वैत) संवेदन की सिद्धि नहीं हो सकती है। यदि कहो कि संवेदन अपने आप उपलभ्यमान स्वभाव वाला है तो उसमें फिर (उसके ज्ञान में) किसी को भी भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए। 1. वैभाषिक , सौत्रान्तिक, योगाचार, और माध्यमिक बौद्धों के ये चार सम्प्रदाय हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रान्तिक अन्तरंग और बहिरंग दोनों पदार्थों को स्वीकार करते हैं। योगाचार केवल अन्तरंग पदार्थ को स्वीकार करते हैं और माध्यमिकों के अनुसार पदार्थ मात्र ही शून्य है। .
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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