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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 44 तद्व्याहृतं, सर्वपुरुषाणामतींद्रियार्थज्ञान-विकलत्वोपगमाद्ब्रह्मादेरतींद्रियार्थज्ञानायोगात् / चोदनाजनितमतींद्रियार्थज्ञानं पुंसोभ्युपेयते चेत्, योगिप्रत्यक्षेण कोऽपराधः कृतः। ___ तदन्तरेणापि हेयोपादेयतत्त्वनिश्चयात् किमस्यादृष्टस्य कल्पनयेति चेत् ब्रह्मादेरतींद्रियार्थज्ञानस्य किमिति दृष्टस्य कल्पना। संभाव्यमानस्येति चेत् योगिप्रत्यक्षस्य किमसंभावना। यथैव हि शास्त्रार्थस्याक्षाद्यगोचरस्य परिज्ञानं केषांचिदृष्टमिति ब्रह्मादेर्वेदार्थस्य ज्ञानं तादृशस्य संभाव्यते तथा केवलज्ञानमपीति निवेदयिष्यते। ततः सकलागमार्थविदामिव सर्वविदां प्रमाणसिद्धत्वान्नानुपलभ्यमानानां परिकल्पना / नापि तैर्विनैव हेयोपादेयतत्त्वनिर्णयः सकलार्थविशेषसाक्षात्करणमंतरेण जैनाचार्य मीमांसकों के इस कथन का खण्डन करते हैं- मीमांसकों के द्वारा सर्व ही पुरुषों को अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञान से रहित माना गया है अतः ब्रह्मा के भी अतीन्द्रिय अर्थ के ज्ञान की अयोग्यता है- अर्थात् ब्रह्मादि को भी अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं हो सकता। यदि याज्ञिक कहे कि (जुहुयात् पचेत् यजेत् इत्यादि) प्रेरणा करने वाले (विधिलिंग) वेदवाक्यों से जनित (उत्पन्न) अतीन्द्रिय अर्थ (इन्द्रियों से नहीं जानने योग्य पुण्य, पाप, स्वर्ग, मोक्ष आदि अर्थ) का ज्ञान पुरुष को आगम से होता है, ऐसा हम मानते हैं तो फिर योगिप्रत्यक्ष के द्वारा सर्वज्ञ अतीन्द्रिय पदार्थों को जानते हैं इसमें क्या अपराध है अर्थात् योगिप्रत्यक्ष ने क्या अपराध किया है। अर्थात् ज्ञान में आगम द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों के जानने का अतिशय मान लेने पर यह मानने में कोई बाधा नहीं रहती कि सर्वज्ञ भी अपने केवलज्ञानरूपी प्रत्यक्ष में अतीन्द्रिय अर्थों को जान लेते हैं। मीमांसक पूछते हैं कि सर्वज्ञ को स्वीकार किये बिना भी हेयोपादेय तत्त्व का निश्चय हो जाने से अदृष्ट (दृष्टिगोचर नहीं होने वाले) सर्वज्ञ की कल्पना से क्या प्रयोजन है? मीमांसकों के इस कथन के सन्दर्भ में ग्रन्थकार कहते हैं कि अतीन्द्रिय अर्थ के ज्ञाता ब्रह्मा आदि की आपकी कल्पना क्या दृष्ट की है? अर्थात् आगम के द्वारा अतीन्द्रिय अर्थ को जानने वाला ब्रह्मा क्या तुम को दीख रहा है, यह भी तो अदृष्टपदार्थ की ही कल्पना है। ____ यदि कहो कि अर्थापत्ति प्रमाण से उस अतीन्द्रिय ज्ञान की संभावना की जाती है तो योगि-प्रत्यक्ष (सर्वज्ञ) की संभावना क्यों नहीं है? क्योंकि जिस प्रकार इन्द्रियों के अगोचर शास्त्र के अर्थ का ज्ञान किन्हीं विद्वानों में देखा गया है, वैसा ही ब्रह्मादि के वेदार्थ का ज्ञान है अर्थात् जैसे मनु आदि के ज्ञान में आगम के द्वारा परोक्ष अर्थ के जानने का अतिशय है, उसी प्रकार केवलज्ञान में भी है। इस बात को हम आगे निवेदन करेंगे। इसलिए आगम प्रमाण के द्वारा संपूर्ण पदार्थों को जानने वाले ब्रह्मा, मनु आदि ऋषियों की सिद्धि के समान सर्वज्ञ केवली भगवान की प्रमाण (आगम एवं अनुमान प्रमाण) के द्वारा सिद्धि हो जाने से अनुपलभ्यमान (सर्वज्ञ दृष्टिगोचर नहीं होता है, इसलिए नहीं है) की कल्पना युक्त नहीं है अर्थात् सर्वज्ञ प्रमाणसिद्ध नहीं है, परिकल्पित है, ऐसा कहना उचित नहीं है। तथा सर्वज्ञ के बिना हेयोपादेय तत्त्व का निर्णय भी नहीं होता है, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों का विशेष विशद रूप से साक्षात् किये (प्रत्यक्ष देखे) बिना आत्मा, परमात्मा, परमाणु आदि किसी भी पदार्थ के निर्दोष रूप से विधान (कथन) का अयोग है अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी के बिना अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय नहीं हो सकता।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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