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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 43 स्यादज्ञातस्य वापि / न तावदुत्तरः पक्षोतिप्रसंगात् / स्वयं ज्ञातस्य चेत् परस्पराश्रयः, सति वेदार्थस्य ज्ञाने तदनुष्ठानाददृष्टविशेष: सति वादृष्टविशेषे स्वयं वेदार्थस्य परिज्ञानमिति / मन्वादेर्वेदाभ्यासोन्यत एवेति चेत् / स कोऽन्यः? ब्रह्मेति चेत् / तस्य कुतो वेदार्थज्ञानं धर्मविशेषादिति चेत् स एवान्योन्याश्रयः। वेदार्थपरिज्ञानाभावे तत्पूर्वकानुष्ठानजनितधर्मविशेषानुत्पत्तौ वेदार्थपरिज्ञानायोगादिति। स्यान्मतं। सहस्त्रशाखो वेदः स्वर्गलोके ब्रह्मणाधीयते चिरं पुनस्ततोवतीर्य म] मन्वादिभ्यः प्रकाश्यते पुनः स्वर्ग गत्वा चिरमधीयते पुनर्मावतीर्णेभ्यो मन्वादिभ्योऽवतीर्य प्रकाश्यत इत्यनाद्यनंतो ब्रह्ममन्वादिसंतानो वेदार्थविप्रतिपत्तिनिराकरणसमर्थोऽधपरंपरामपि परिहरतीति वेदे तो सभी मनुष्यों को वेद का स्मरण मानना पड़ेगा। यदि कहो कि मनु आदि ऋषियों को पूर्वोपार्जित अदृष्ट (पुण्य) विशेष से वेदवाक्यों का अभ्यास स्वतः होता है ऐसा कहना ठीक है, अन्य सभी प्राणियों को स्वतः वेद का अभ्यास नहीं होता- क्योंकि उनमें पुण्यविशेष का अभाव है तो इन मनु आदि ऋषियों को ही वेदवाक्यों के अभ्यास का कारणभूत विशिष्ट पुण्य कैसे प्राप्त हुआ? यदि कहो कि पूर्व जन्म में उस प्रकार के वेद का अनुष्ठान (आचरण) करने से वैसा पुण्य प्राप्त हुआ है तो हम पूछते हैं कि पूर्वजन्म में उन मनु आदि ऋषियों ने स्वयं (वेद के अर्थ को जानकर के) कर्मों का अनुष्ठान (वेदविहित ज्योतिष्टोम अग्निहोत्र आदि) किया था कि वेदार्थ को बिना जाने ही अनुष्ठान किया? अतिप्रसंग दोष (चाहे जैसी क्रिया से पुण्यप्राप्ति का प्रसंग आने) से उत्तर पक्ष बिना जाने वेद के अर्थ का अनुष्ठान करना तो ठीक नहीं है। यदि कहो कि स्वयं वेद के अर्थ को जानकर ही मनु आदि ऋषियों ने वेदविहित क्रियाओं का अनुष्ठान किया है और उससे विशिष्ट पुण्योपार्जन किया है तो इसमें अन्योन्याश्रय दोष आता है कि जब वेद के अर्थ का ज्ञान हो जाय तब तो वेद को जानकर वेदविहित अनुष्ठान से विशिष्ट पुण्य प्राप्त करें और जब विशिष्ट पुण्य का उपार्जन हो जाय तब उस विशिष्ट पुण्य से मनु आदि ऋषि स्वयं वेद के अर्थ का परिज्ञान करें, इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष आता है। यदि यह कहो कि मनु आदि ऋषियों को पूर्वजन्म में वेद का अभ्यास अन्य महात्माओं से हुआ है, तो वे अन्य महात्मा कौन हैं? यदि कहो कि मनु आदि को श्रुति का अभ्यास ब्रह्मा से हुआ है, तो उस ब्रह्मा को अनादिकालीन वेदों के अर्थ का ज्ञान किससे हुआ? यदि कहो कि ब्रह्मा को अतिशययुक्त पुण्य से गुरु के बिना ही स्वतः अनादिकालीन वेदों के अर्थ का परिज्ञान हो जाता है तो वही पूर्वोक्त अन्योन्याश्रय दोष आता है- क्योंकि वेदार्थ के परिज्ञान के अभाव में उस ज्ञानपूर्वक किये हुए अनुष्ठानजनित धर्मविशेष (पुण्य) की उत्पत्ति नहीं हो सकती और वेदविहित अनुष्ठान से उपार्जित पुण्योदय के बिना वेदार्थ के परिज्ञान का अयोग (अभाव) होगा। मीमांसक कथन- वेद हजार शाखा वाला है। स्वर्ग लोक में ब्रह्मा चिर काल तक उस वेद का अध्ययन करते हैं, पश्चात् स्वर्ग से मर्त्य लोक में अवतार लेकर मनु आदि ऋषियों के लिए वेद के अर्थ का प्रकाशन करते हैं, पुनः स्वर्ग में जाकर चिर काल तक वेद के अर्थ का अध्ययन करते हैं, पुनः ब्रह्मा स्वर्ग से उतर कर मनुष्य में अवतार लेकर उन्हीं मनु आदि ऋषियों के लिए वेदार्थ का प्रकाशन करते हैं। इस प्रकार अनादि अनन्त ब्रह्मा और मनु आदि की परम्परा वेदार्थ के विवाद का निराकरण करने में समर्थ है और ब्रह्मा एवं मनु की परम्परा को मान लेने पर वेद में अन्ध-परम्परा दोष का निवारण भी हो जाता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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