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________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक-३९ कशित्तु कार्यविशेषदर्शनादनुमिनोति / तथाऽऽगमादपरः प्रतिपद्यते ततोऽप्यपरस्तदुपदेशादिति संप्रदायस्याव्यवच्छेदः सर्वदा तदन्यथोपदेशाभावात् / तस्याविरोधः पुनः प्रत्यक्षादिविरोधस्यासंभवादिति तदेतन्मोक्षमार्गोपदेशेऽपि समान। तत्राप्येवंविधविशेषाक्रांतानि सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्ग इत्यशेषतोऽतींद्रियप्रत्यक्षतो भगवान् परममुनिः साक्षात्कुरुते, तदुपदेशाद्गणाधिपः प्रत्येति, तदुपदेशादप्यन्यस्तदुपदेशाच्चापर इति संप्रदायस्याव्यवच्छेदः सदा तदन्यथोपदेशाभावात्। तस्याविरोधश्च प्रत्यक्षादिविरोधस्याभावादिति। सगोत्राघुपदेशस्य यत्र यदा यथा यस्याव्यवच्छेदस्तत्र तदा तथा तस्य प्रमाणत्वमपीष्टमिति चेत्, मोक्षमार्गोपदेशस्य किमनिष्टं ? केवलमत्रेदानीमेवमस्मदादेस्तव्यवच्छेदाभावात्प्रमाणता साध्यते। . में भी विचार क्या है? यदि कहो कि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणों के द्वारा समीचीन परीक्षण करना यहाँ विचार कहा जाता है। क्योंकि 'यह सोमवंशीय क्षत्रिय है' ऐसा कोई अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा निर्णय करते हैं, उस सद्गोत्र के व्यवहार के निमित्त उस ऊँच गोत्र के उदय का प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा ही साक्षात्कार होता है। और जो कोई प्रत्यक्ष नहीं कर सकते, वे उन गोत्रादि के अविनाभावी कार्यविशेष को देखकर सद्गोत्र आदि का अनुमान कर लेते हैं। अर्थात् भिन्न-भिन्न कुलों में कुछ-न-कुछ विलक्षणता पाई जाती है, उसी से उनके गोत्रादि का अनुमान कर लिया जाता है। कोई आगम के द्वारा सद्गोत्र आदि को जानते हैं, उसके उपदेश से दूसरा जानता है, इस प्रकार सर्वदा सम्प्रदाय का व्यवच्छेद नहीं होता है। अर्थात् सद्गोत्र आ का उपदेश धाराप्रवाह रूप से चला आ रहा है। यदि सद्गोत्रादि के उपदेश की धारा टूट गयी होती तो आज तक सर्वदा उनके उपदेश का अभाव हो जाता। इस प्रकार जब उक्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण उस उपदेश के साधक हैं बाधक नहीं हैं तो फिर सम्प्रदाय के न टूटने में प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा विरोध की असंभवता है। उसी प्रकार मोक्षमार्ग के उपदेश में भी यह पूर्वोक्त सम्पूर्ण कथन सामान्य रूप से घट जाता है, अर्थात् भिन्नभिन्न मोक्षमार्ग को भी तीनों प्रमाणों से जान सकते हैं। ... इस मोक्षमार्ग में भी सद्गोत्र आदि की विशेषताओं के समान विशेषता (प्रशम संवेग आस्तिक्य अनुकम्पा आदि) से आक्रान्त सम्यग्दर्शनादि से मोक्षमार्ग का अनुमान कर लेते हैं। तथा परम मुनि भगवान अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा अशेष रूप से 'सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग है।' ऐसा साक्षात् जान लेते हैं। तथा तीर्थंकर जिनेन्द्र के उपदेश द्वारा गणधरदेव आगमप्रमाण के द्वारा 'सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग है' ऐसा निर्णय कर लेते हैं और गणधरों के उपदेश से अन्य आचार्य आगमज्ञान कर लेते हैं और उनसे अन्य आचार्य। इस प्रकार सम्प्रदाय (परम्परा) अखण्ड धाराप्रवाह अद्यावधि चले आ रहे हैं। अन्यथा (इस प्रकार स्वीकार किए बिना) आज तक सच्चे वक्ताओं के उपदेश का अभाव हो जाता। परन्तु मोक्षमार्ग का उपदेश प्रवर्तित हो रहा है, इसमें कोई विरोध नहीं है तथा इस प्रकार संप्रदाय को अव्यवच्छेद मानने में प्रत्यक्ष आदि प्रमाण के द्वारा विरोध की असंभवता है। यदि कहो कि सद्गोत्र आदि के उपदेश का जिस क्षेत्र में जिस काल में और जिस प्रकार से जिस गोत्रादि का सम्प्रदायाव्यवच्छेद (धाराप्रवाह का घात नहीं हुआ) है, उस क्षेत्र में उस काल में उस प्रकार से, उस गोत्र आदि को अखण्ड रूप से मानना हमको इष्ट है तो मोक्षमार्ग के उपदेश की प्रमाणता इष्ट क्यों नहीं
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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