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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-४० कपिलाद्युपदेशस्यैवं प्रमाणता स्यादिति चेत् न, तस्य प्रत्यक्षादिविरोधसद्भावात् / नन्वाप्तमूलस्याप्युपदेशस्य कुतोर्थनिश्चयोस्मदादीनां? न तावत्स्वत एव वैदिकवचनादिवत्पुरुषव्याख्यानादिति चेत् / स पुरुषोऽसर्वज्ञो रागादिमांश यदि तदा तद्व्याख्यानादर्थनिशयानुपपत्तिरयथार्थाभिधानशंकनात् / सर्वज्ञो वीतरागश न सोत्रेदानीमिष्टो यतस्तदर्थनिशयः स्यादिति कशित् / तदसत् / प्रकृतार्थपरिज्ञाने तद्विषयरागद्वेषाभावे च सति तद्व्याख्यातुर्विप्रलंभनासंभवात्तद्व्याख्यानादर्थनिश्चयोपपत्तेः। है, अर्थात् जिस काल में जिस क्षेत्र में जिस प्रकार से मोक्षमार्ग का उपदेश धाराप्रवाह से चला आ रहा है उसकी प्रमाणता इष्ट ही है। आप्तमूलत्व हेतु से सूत्र को आगमप्रमाण रूप सिद्ध करने वाले अनुमान से हम केवल इतना ही सिद्ध करते हैं कि इस भरत क्षेत्र में आज इस पंचम काल में हम लोगों को भी गुरुपरम्परा से चला आ रहा मोक्षमार्ग का उपदेश आगम प्रमाण रूप है। (अन्य क्षेत्रों में आज भी साक्षात् मोक्षमार्ग को अतीन्द्रिय ज्ञान से जानने वाले उपस्थित हैं।) अन्य उपदेश प्रामाणिक नहीं हैं। यहाँ मीमांसक कहते हैं कि इस प्रकार गुरुओं की परम्परा का व्यवच्छेद न होने से मोक्षमार्ग के उपदेश को प्रमाण स्वरूप मानोगे तो कपिल, जैमिनी, कणाद आदि के उपदेश के भी प्रमाणता माननी पड़ेगी क्योंकि कपिल आदि का उपदेश भी परम्परा से चला आ रहा है। आचार्य कहते हैं कि कपिलादि के उपदेश को प्रमाणभूत मानना उचित नहीं है क्योंकि कपिलादि के उपदेश में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम आदि प्रमाणों से विरोध का सद्भाव पाया जाता है। अर्थात् उनका नित्य एकान्त आदि कथन प्रत्यक्षादि ज्ञान से बाधित है। यहाँ प्रतिवादी प्रश्न करता है कि आप्तमूल सूत्ररूप उपदेश का अर्थनिर्णय हम लोगों को कैसे होगा? वैदिक वचन के समान स्वत: तो सूत्र के अर्थ का निर्णय नहीं हो सकता। अर्थात् जिस प्रकार, "हमारा अर्थ भावना है, नियोग या विधि नहीं" आदि वेदवाक्य स्वयं कहते नहीं, उसी प्रकार 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह सूत्र भी स्वयं अपने अर्थ का ज्ञान नहीं करा सकता। यदि कहो कि विद्वान् पुरुषों के व्याख्यान से प्राचीन उपदेश रूप इस सूत्र के अर्थ का निर्णय किया जाता है तो इस सूत्र का व्याख्याता पुरुष यदि असर्वज्ञ और रागी द्वेषी है, तब तो उसके व्याख्यान से अर्थ का निश्चय होना असिद्ध है। क्योंकि रागी द्वेषी और अज्ञानी के कथन में अयथार्थ (असत्य अर्थ) के कथन की शंका बनी रहती है। यदि सूत्र का व्याख्याता सर्वज्ञ और वीतराग है तो वह इस समय इस क्षेत्र में इष्ट नहीं है, जिससे इस सूत्र के अर्थ का निश्चय हो सके। आचार्य उत्तर देते हैं कि इस प्रकार कहना ठीक नहीं है; क्योंकि प्रकरण में प्राप्त मोक्षमार्ग रूपी अर्थ के परिज्ञान में, उसे बताने में रागद्वेष का अभाव होने के कारण, इस सूत्र का व्याख्यान करने वाले के विप्रलंभना (धोखा देने) की असंभवता होने से, उस पुरुष के व्याख्यान से अर्थ का निश्चय होता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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