________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 37 प्रधानम्यात्मनो वा चेतनारहितस्य बुभुत्सायां न प्रथमं सूत्रं प्रवृत्तं तस्याप्युपदेशायोग्यत्वनिशयात्खादिवत् / चैतन्यसंबंधात्तस्य चेतनतोपगमादुपदेशयोग्यत्वनिश्चय इति चेन्न। तस्य चेतनासंबंधेऽपि परमार्थतशेतनतानुपपत्ते: शरीरादिवत् / उपचारात्तु चेतनस्योपदेशयोग्यतायामतिप्रसंगः शरीरादिषु तनिवारणाघटनात्। . तत्संबंधविशेषात्परमार्थतः कस्यचिच्चे तनत्वमितिचेत्, स कोऽन्योऽन्यत्र कथंचिच्चे तनातादात्म्यात् / ततो ज्ञानाधुपयोगस्वभावस्यैव श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य श्रेयोमार्गप्रतिपित्सायां सत्यामिदं प्रकृतं सूत्रं प्रवृत्तमिति निशयः। प्रमाणभूतस्य प्रबंधेन वृत्ते: श्रोतृविशेषाभावे वक्तृविशेषासिद्धौ विधानानुपपद्यमानत्वात्। किं पुन: प्रमाणमिदमित्याह; प्रधान (प्रकृति) की वा चेतना रहित आत्मा की तत्त्व जानने की इच्छा होने पर यह प्रथम सूत्र (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः) प्रवृत्त नहीं हुआ है, क्योंकि आकाश, पत्थर आदि के समान स्वयं जड़ स्वरूप प्रकृति और अचेतन आत्मा के उपदेश प्राप्त करने की अयोग्यता का निश्चय है, अर्थात् जैसे अचेतन आकाशादि उपदेश नहीं ग्रहण कर सकते, उसी प्रकार अचेतन आत्मा और प्रकृति भी। . "चैतन्य गुण के संबंध से आत्मा के चेतनता स्वीकार करने पर उस अचेतन आत्मा और प्रकृति के.उपदेश सुनने की योग्यता का निश्चय होगा" ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि स्वतः जड़स्वरूप प्रकृति और आत्मा के चेतना का संबंध होने पर भी शरीर के समान उनमें परमार्थ (वास्तविक) चेतनता की अनुपपत्ति है। अर्थात् जैसे शरीर चेतना के सम्बन्ध से चेतन नहीं हो सकता, उसी प्रकार चेतना के सम्बन्ध से प्रकृति और आत्मा वास्तविक चेतन नहीं बन सकते। तथा उपचार से चेतन के भी उपदेश सुनने की योग्यता है, ऐसा माननेपर शरीरादि में उस उपदेश सुनने की योग्यता का निवारण (निषेध) करने की अशक्यता होने से, अतिप्रसंग दोष आयेगा- अर्थात् उपचार से चेतन शरीर भी है, उसमें भी उपदेश सुनने की योग्यता होगी। यदि "शरीर आदि में नहीं रहने वाली चेतना के सम्बन्ध विशेष से किसी (आत्मा और प्रधान) के परमार्थतः चेतनता है", ऐसा मानते हो तो वह चेतना का विशेष सम्बन्ध कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध के सिवाय आत्मा को छोड़कर दूसरे में क्या हो सकता है ? इसलिए भविष्य काल में श्रेय के साथ संयुक्त होने वाले, ज्ञानादि उपयोग स्वभाव वाले शिष्य की मोक्षमार्ग को जानने की अभिलाषा होने पर ही यह प्रकरणप्राप्त प्रथम सूत्र प्रवृत्त हुआ है, यह निश्चित है। क्योंकि श्रोता विशेष के अभाव में वक्ता विशेष की असिद्धि होने पर विधिपूर्वक प्रबन्ध (प्रवाहरूप) से प्रमाणभूत सूत्र की रचना नहीं हो सकती। आदिसूत्र की प्रामाणिकता यह सूत्र प्रमाणभूत क्यों है, ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं 1. सांख्य प्रधान को और नैयायिक आत्मा को चैतन्य के संयोग से चेतन मानता है।