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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 36 नाप्यसत्यां बुभुत्सायामात्मनोऽचेतनात्मनः। खस्येव मुक्तिमार्गोपदेशायोग्यत्वनिश्चयात् / / 5 / / नैव विनेयजनस्य संसारदुःखाभिभूतस्य बुभुत्सायामप्यसत्यां श्रेयोमार्गे परमकारुणिकस्य करुणामात्रात्तत्प्रकाशकं वचनं प्रवृत्तिमदिति युक्तं, तस्योपदेशायोग्यत्वनिर्णीते:। न हि तत्प्रतिपित्सारहितस्तदुपदेशाय योग्यो नामातिप्रसंगात्, तदुपदेशकस्य च कारुणिकत्वायोगात्। ज्ञात्वा हि बुभुत्सां परेषामनुग्रहे प्रवर्तमानः कारुणिकः स्यात् / क्वचिदप्रतिपित्सावति परप्रतिपित्सावति वा तत्प्रतिपादनाय प्रयतमानस्तु न स्वस्थः। परस्य प्रतिपित्सामंतरेणोपदेशप्रवृत्तौ तत्प्रश्नानुरूपप्रतिवचनविरोधश / योऽपि चाज्ञत्वान्न स्वहितं प्रतिपित्सते तस्य हि तत् प्रतिपित्सा करणीया। न च कश्चिदात्मनः प्रतिकूलं बुभुत्सते मिथ्याज्ञानादपि स्वप्रतिकूले अनुकूलाभिमानादनुकूलमहं प्रतिपित्से सर्वदेति प्रत्ययात् / तत्र नेदं भवतोनुकूलं किंत्विदमित्यनुकूलं प्रतिपित्सोत्पाद्यते / समुत्पन्नानुकूलप्रतिपित्सस्तदुपदेशयोग्यतामात्मसात् कुरुते। ततः श्रेयोमार्गप्रतिपित्सावानेवाधिकृतस्तत्प्रतिपादने नान्य इति सूक्तं। इच्छारहित, अचेतन आकाश के मुक्तिमार्ग के उपदेश की अयोग्यता का निश्चय होने से, न तो किसी की जानने की इच्छा न होने पर सूत्र की प्रवृत्ति हुई है, न चेतना रहित जड़स्वरूप आत्मा की इच्छा होने पर यह सूत्र प्रवर्तित हुआ है और न प्रधान की इच्छा से सूत्र की रचना हुई है। अर्थात् उक्त तीनों प्रकारों में भी मोक्षमार्ग का उपदेश प्राप्त . करने की अयोग्यता का निश्चय है। // 5 // ___ संसार-दुःख से अभिभूत शिष्यजन की मोक्षमार्ग के विषय में जानने की इच्छा न होने पर भी परम कारुणिक भगवान् के केवल कारुण्य भाव से ही श्रेयोमार्ग के प्रकाशक वचन प्रवर्तित होते हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि तत्त्व को जानने के अनिच्छुक पुरुष के उपदेशग्रहण करने की अयोग्यता का निर्णय है अर्थात् अनिच्छुक को उपदेश देना व्यर्थ है. (जैसे भैंस के आगे बीन बजाना)। तत्त्वज्ञान को समझने की अभिलाषा से रहित पुरुष को उपदेश देना नहीं है, इससे अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् तत्त्व सुनने के अनाकांक्षी पुरुष को यदि उपदेश दिया जायेगा तो कीटपतंग, उन्मत्त आदि को भी उपदेश देना चाहिए यह अतिप्रसंग दोष होगा। और ऐसे उपदेश देने वाले को करुणायुक्त नहीं कहना चाहिए। (अर्थात् वह कारुणिक नहीं कहलायेगा) क्योंकि दूसरों की तत्त्वग्रहण करने की इच्छा को जानकर परोपकार में प्रवृत्ति करने वाला ही कारुणिक कहलाता है। किसी की जानने की इच्छा न होने पर भी वा (आत्मा को छोड़) पर (प्रकृति) की इच्छा होने पर तत्त्व का प्रतिपादन करने में प्रवृत्ति करने वाला उपदेष्टा स्वस्थ (विचारशील) नहीं है। क्योंकि श्रोता के सुनने की इच्छा के बिना उपदेश में प्रवृत्ति करने पर श्रोता के 'प्रश्नानुसार उत्तर देना' यह बात विरुद्ध होगी। जो पुरुष मूर्खता के कारण अपने हित को नहीं समझता है, उसके लिए प्रथम तत्त्वज्ञान जानने की इच्छा उत्पन्न कराने का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि मिथ्याज्ञान के कारण अपने प्रतिकूल कार्य में सर्वदा अनुकूल के अभिमान से "मैं अनुकूल ही कर रहा हूँ।" ऐसा विश्वास होने से कोई भी प्राणी अपने प्रतिकूल पदार्थ को जानना नहीं चाहता है। ऐसी दशा में "यह आपके अनुकूल नहीं है, यह अनुकूल है" यह इच्छा उत्पन्न करानी चाहिए। क्योंकि समुत्पन्न अनुकूल प्रतिपित्सा (जानने की इच्छा) वाला प्राणी ही वक्ता के उपदेश की योग्यता को आत्मसात् करता है। अतः श्रेयोमार्ग के जानने का इच्छुक शिष्य ही तत्त्व के प्रतिपादन को सुनने का अधिकारी है, अनाकांक्षी सुनने का अधिकारी नहीं है, यह ठीक ही कहा है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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