________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 35 संभवन्नपि ह्यकृत्रिमाम्नायो न स्वयं स्वार्थ प्रकाशयितुमीशस्तदर्थविप्रतिपत्त्यभावानुषंगादिति तद्व्याख्यातानुमंतव्यः। स च यदि सर्वज्ञो वीतरागशः स्यात्तदाम्नायस्य तत्परतंत्रतया प्रवृत्तेः किमकृत्रिमत्वमकारणं पोष्यते। तद्व्याख्यातुरसर्वज्ञत्वे रागित्वे वाश्रीयमाणे तन्मूलस्य सूत्रस्य नैव प्रमाणता युक्ता, तस्य विप्रलंभनात्।. ... दोषवव्याख्यातृकस्यापि प्रमाणत्वे किमर्थमदुष्टकारणजन्यत्वं प्रमाणस्य विशेषणं / यथैव हि खारपटिकशास्त्रं दुष्टकारणजन्यं तथाम्नायव्याख्यानमपीति तद्विसंवादकत्वसिद्धेर्न तन्मूलं वचः प्रमाणभूतं सत्यं / सर्वज्ञवीतरागे च वक्तरि सिद्धे श्रेयोमार्गस्याभिधायकं वचनं प्रवृत्तं न तु कस्यचित्प्रतिपित्सायां सत्याम् / - चेतनारहितस्य चात्मनः प्रधानस्य वा बुभुत्सायां तत्प्रवृत्तमिति कश्चित्तं प्रत्याह; यद्यपि वर्णपदवाक्यात्मक वेद नित्य सिद्ध नहीं है फिर भी वेद को संभवतः अकृत्रिम मान लिया जाये तो भी वह स्वयं अपने अर्थ को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि स्वयं वेद अपने अर्थ को प्रकाशित करता तो परस्पर विवाद के अभाव का प्रसंग आता है। अर्थात् भावनावादी, नियोगवादी, विधिवादी आदि अनेक प्रकार का विवाद करते हैं, वेदवाक्यों में वह नहीं होता। वेदवाक्य में विवाद है। अत: वेदवाक्यों का व्याख्यान करने वाला कोई पुरुष अवश्य मानना पड़ेगा। : यदि उस वेद का व्याख्याता सर्वज्ञ और वीतराग है तब तो वेद उस व्याख्याता के आधीन होकर ही प्रवृत्त होगा तो फिर बिना कारण उन वेदवाक्यों की 'अकृत्रिम एवं अपौरुषेय' है, ऐसी पुष्टि क्यों की जा रही है। यदि उस वेद के व्याख्याता को असर्वज्ञ रागी-द्वेषी स्वीकार करते हो तो उस मूल सूत्र के प्रमाणता नहीं आसकती- क्योंकि मीमांसकों के दर्शनसूत्र विपरीत अर्थ का वर्णन करने वाले होंगे। अज्ञानी, रागीद्वेषी कथित ग्रन्थ विपरीत अर्थ का प्रतिपादक भी हो सकता है। . .यदि रागी-द्वेषी, अल्पज्ञ व्याख्याता के द्वारा कथित ग्रन्थ को भी प्रमाण स्वीकार कर लोगे तो "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितं / अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम्' ये अदुष्ट कारण- जन्य आदि विशेषण प्रमाण के क्यों दिये गये हैं। जिस प्रकार खारपटिक शास्त्र दुष्ट कारणजन्य है अतः अप्रमाण है, उसी प्रकार वेद व्याख्यान के भी विसंवादित्व सिद्ध होने से उस वेद के वचन प्रमाण भूत और सत्य नहीं हैं। वीतराग सर्वज्ञ वक्ता की वचन प्रवृत्ति क्यों? इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञवक्ता की सिद्धि हो जाने पर ही मोक्षमार्ग का कथन करने वाले वचनों की प्रवृत्ति होती है यह बात सिद्ध हुई। किन्तु किसी शिष्य विशेष की इच्छा न होने पर भी इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है (ऐसा बौद्ध का कथन है) अथवा चेतनारहित आत्मा की तत्त्व जानने की इच्छा होने पर तत्त्वदेशना प्रवृत्त हुई है, ऐसा कोई (नैयायिक) कहते हैं। (कपिल मतानुयायी कहते हैं कि) सत्त्व रज तमो गुण की साम्य अवस्था रूप प्रकृति की जिज्ञासा होने पर सूत्र बनाया गया है। इस प्रकार का कथन करने वालों के प्रति आचार्य कहते हैं