SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३२ सूत्रत्वान्यथानुपपत्तेः। गणाधिपप्रत्येकबुद्धश्रुतकेवल्य-भिन्नदशपूर्वधरसूत्रेण स्वयं संमतेन व्यभिचार इति चेत् न, तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतरागप्रणेतृकत्वसिद्धेरहद्भाषितार्थ गणधरदेवैर्ग्रथितमिति वचनात् / एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता। प्रकृतसूत्रे सूत्रत्वमसिद्धमिति चेत् न, सुनिश्चितासंभवद्वाधकत्वेन तथास्य सूत्रत्वप्रसिद्धः सकलशास्त्रार्थाधिकरणाच्च / न हि मोक्षमार्गविशेषप्रतिपादकं सूत्रमस्मंदादिप्रत्यक्षेण बाध्यते तस्य तदविषयत्वात् यद्धि यदविषयं न तत्तद्वचसो बाधकं, यथा रूपाविषयं रसनज्ञानं रूपवचसः श्रेयोमार्गविशेषाविषयं चास्मदादिप्रत्यक्षमिति। शंका - स्वयं जैन धर्मावलम्बियों के द्वारा माने हुए गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली, अभिन्नदशपूर्वधारी ऋषियों के द्वारा रचित सूत्र से तुम्हारे कथन में व्यभिचार आता है - अथवा जैनों ने गणधर आदि के द्वारा रचित ग्रन्थ को सूत्र माना है अतः सर्वज्ञ के द्वारा कथित ही सूत्र होता है, इसमें व्यभिचार आता है। उत्तर - ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि गणधरादि रचित ग्रन्थ में भी अर्थ की अपेक्षा सर्वज्ञ वीतराग प्रणेतृकत्व की सिद्धि है अर्थात् अर्थ की अपेक्षा गणधरादि रचित ग्रन्थं भी सर्वज्ञ वीतराग के द्वारा कहे हुए हैं। पूर्वाचार्यों ने कहा भी है कि 'अर्हन्त देव के द्वारा भाषित अर्थ को ही गणधर देवों ने द्वादशांग रूप से गूंथा है।' इस पूर्वोक्त कथन से गृद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनियों के द्वारा रचित सूत्रों से भी व्यभिचार दोष दूर हो गया है। अर्थात् अर्थ रूप से यह तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ गुरु परिपाटी से चला आ रहा है और अक्षरात्मक ग्रन्थ रूप में गृद्ध पिच्छाचार्य ने रचा है। सूत्र के वाच्यार्थ में बाधक प्रमाणों का अभाव इस तत्त्वार्थसूत्र में सूत्रत्व असिद्ध है अर्थात् इसमें सूत्रत्व का लक्षण घटित नहीं होता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि इसके वाच्य अर्थ में बाधक प्रमाणों के अभाव का भले प्रकार निश्चय होने से और सकल शास्त्रों के प्रतिपाद्य अर्थ का मूल आधार होने से, इस तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के सूत्रपना प्रसिद्ध ही है। यह मोक्षमार्ग विशेष का प्रतिपादक तत्त्वार्थ सूत्र हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा बाधित नहीं है। हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान से इस सूत्र के अर्थ की सिद्धि में कोई बाधा नहीं आती है, क्योंकि इस सूत्र का प्रतिपाद्य अर्थ हमारे मतिज्ञान रूप प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं है। जो ज्ञान, जिस प्रमेय को विषय नहीं करता वह ज्ञान उस प्रमेय के प्रतिपादन करने वाले वचन का बाधक नहीं होता, जैसे रूप को विषय नहीं करने वाला रसनेन्द्रियजन्य मतिज्ञान रूप को कहने वाले वचन का बाधक नहीं होता। इसी प्रकार मोक्षमार्ग को विषय नहीं करने वाला हम लोगों का प्रत्यक्ष ज्ञान (इन्द्रियजन्यमविज्ञान) सूत्र के वाच्यार्थ का बाधक नहीं हो सकता।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy