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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३१ सद्भावावेदकत्वाभावात्तद-भिव्यंग्यत्वाभाव इति तजन्यमेव वचनं सिद्ध पर्यायार्थतः पौरुषेयं / वचनसामान्यस्य पौरुषेयत्वसिद्धौ विशिष्टं सूत्रवचनं सत्प्रणेतृकं प्रसिद्ध्यत्येवेति सूक्तं "सिद्ध मोक्षमार्गस्य नेतरि प्रबंधेन वृत्तं सूत्रमादिमं शास्त्रस्येति।" तथाप्यनाप्तमूलमिदं वक्तृसामान्ये सति प्रवृत्तत्वाद्दुष्टपुरुषवचनवदिति न मन्तव्यं, साक्षात्प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थे प्रक्षीणकल्मषे चेति विशेषणात् / सूत्रं हि सत्यं सयुक्तिकं चोच्यते 'हेतुमत्तथ्यमिति' सूत्रलक्षणवचनात् / तच्च कथमसर्वज्ञे दोषवति च वक्तरि प्रवर्तते? सूत्राभासत्वप्रसंगावृहस्पत्यादिसूत्रवत्ततोर्थतः सर्वज्ञवीतरागप्रणेतृकमिदं सूत्रं और अमूर्तत्व हेतु की असिद्धि ही है। यह हेतु असिद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि यह अमूर्तत्व हेतु शब्द के सर्वगतत्व का साधन नहीं है, जिससे शब्द के नानात्व को सिद्ध करने के लिए दिया गया 'युगपत् (एकसाथ) भिन्न-भिन्न देशों में उपलभ्यमानता' यह हेतु अबाधित न हो - अर्थात् एक साथ भिन्न-भिन्न देशों में सुनाई देने से शब्द में नानात्व है, यह निर्दोष सिद्ध है। तथा पुरुष के व्यापार के पहले शब्द के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले एकत्वपरामर्शी प्रत्यभिज्ञान के अनुमानबाधित हो जाने से, पुरुष व्यापार के पूर्व शब्द के सद्भाव का कथन करने वाले ज्ञानत्व का अभाव होने से "शब्द अपने व्यञ्जकों के द्वारा अभिव्यक्त होता है, इसका भी अभाव हो जाता है। अतः शब्द का पुरुष के प्रयत्न (कण्ठ तालु) से उत्पन्न होना सिद्ध होता है इसलिए शब्द पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से पुरुषकृत है, यह निर्बाध सिद्ध है। इस प्रकार शब्द सामान्य (अक्षरात्मक सभी वचनों) के पुरुषकृत सिद्ध हो जाने पर 'सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यादि विशिष्ट सूत्र वचन सत्पुरुष आप्त कृत है, यह सिद्ध हो ही जाता है। इसलिए 'सिद्धे मोक्षमार्गस्य नेतरि' इत्यादि मोक्षमार्ग के नेता सर्वज्ञ के सिद्ध हो जाने पर तत्त्वार्थसूत्र के आदिसूत्र की रचना हुई है, यह कथन समीचीन है। उपर्युक्त कथन से शब्द के अनित्य और पुरुषकृत सिद्ध हो जाने पर भी दुष्ट पुरुष के वचन के समान सामान्य वक्ता का कहा हुआ होने से यह तत्त्वार्थसूत्र अनाप्तमूल है अर्थात् यह तत्त्वार्थसूत्र आप्त का कहा हुआ नहीं है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि इस तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के साक्षात् सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ), प्रक्षीणशेषकल्मष (घातिया कर्मों के नाशक), ये दो विशेषण होने से यह सूत्र सत्य और युक्तियुक्त है अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान से सिद्ध है। तथा सूत्र का लक्षण है 'हेतुमत्तथ्यं' जो युक्तिसहित सत्य अर्थ का निरूपण करता है वह सूत्र.कहलाता है। इस लक्षण वाले सूत्र की रचना करने में असर्वज्ञ, रागीद्वेषी वक्ता के होने पर' प्रवृत्ति कैसे होती है अर्थात् अल्पज्ञानी रागद्वेषाादि दोषों से युक्त वक्ता इस सूत्र की रचना कैसे कर सकता है। क्योंकि असर्वज्ञ, दोषी, उत्सूत्रभाषी वक्ता के द्वारा कहे हुए सूत्र में वृहस्पति आदि के द्वारा कहे हुए सूत्र के समान सूत्राभासत्व का प्रसंग आता है। अतः यद्यपि यह तत्त्वार्थसूत्र पद और वाक्यों की रचना से गृद्धपिच्छ का रचा हुआ है तथापि अर्थतः (इसके वाच्य-प्रमेय की अपेक्षा) यह सूत्र सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत ही है (इसके अर्थरूपप्रणेता सर्वज्ञ ही हैं)। यदि यह सर्वज्ञ प्रणीत नहीं होता तो इसमें सूत्रत्व नहीं होता, यह सूत्राभास हो जाता।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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