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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३० सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाहोंद्रियविषयत्वादातपादिवत् / न घटत्वादिसामान्येन व्यभिचारः, सामान्यविशेषवत्त्वे सतीति विशेषणात् / परमतापेक्षं चेदं विशेषणं / स्वमते घटत्वादिसामान्यस्यापि सदृशपरिणामलक्षणस्य द्रव्यपर्यायात्मकत्वेन स्थितेस्तेन व्यभिचाराभावात्। कर्मणानैकांत इति चेत् न, तस्यापि द्रव्यपर्यायात्मकत्वेनेष्टेः / स्पर्शादिना गुणेन व्यभिचारचोदनमनेनापास्तं। ततो हेतोरसिद्धिरेवेति नातोभिलापस्य सर्वगतत्वसाधनं यतो युगपद्भिनदेशतयोपलभ्यमानता अस्याबाधिता न भवेत् / प्रत्यभिज्ञानस्य वा तदेकत्वपरामर्शिनोनुमानबाधितत्वेन पुरुषव्यापारात्प्राक् से व्यापक) अल्प देश में रहने वाले गुणकर्मादि विशेष (व्याप्य) से सहित होकर इन्द्रियों का विषय होता है, वह मूर्त द्रव्य की पर्याय है। सामान्यविशेषे सति' इस विशेषण को ग्रहण करने से 'जो इन्द्रियग्राह्य होता है वह मूर्तिक होता है' यह हेतु घट सामान्य से व्यभिचार (अनेकान्त दोष) से दूषित नहीं होता। और यह ‘सामान्यविशेषे सति' विशेषण परमत का खण्डन करने के लिए है। अर्थात् जो घट में रहने वाली घटत्व जाति (घटत्व, रूपत्व, रसत्व आदि) रूप पर्यायें इन्द्रियों के द्वारा जानी जाती हैं परन्तु वे पुद्गल की पर्यायें नहीं हैं ऐसा मानते हैं, उनके प्रति, शब्द को पौद्गलिक सिद्ध करने के लिए दिये गये हेतु में 'सामान्यविशेषे सति' यह विशेषण दिया गया है क्योंकि जैन मत में तो अनेक सामान्य व्यक्तियों में रहने वाले घटत्वादि सदृश परिणामरूप तिर्यग् सामान्य और अनेक काल में एक व्यक्ति में रहने वाले घट आदि की पूर्वापर काल व्यापक सदृशता रूप ऊर्वता सामान्य की द्रव्यपर्यायात्मक से स्थिति होने से घटत्वादि सामान्य से व्यभिचार का अभाव है। अर्थात् सामान्य भी द्रव्य की पर्याय रूप से अवस्थिति है। ___ कर्म के द्वारा भी अनैकान्तिक दोष नहीं है। अर्थात् भ्रमण-गमन, आकुंचन, विसर्पण आदि कर्म भी सामान्य से व्याप्यकर्मत्व जाति से सहित हैं, इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य भी हैं परन्तु परिस्पन्दन क्रिया से रहित होने से पुद्गल की पर्याय नहीं हैं - अतः "जो इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य हैं वह पुद्गल की पर्याय है।" यह हेतु कर्म सामान्य से अनैकान्तिक है - क्योंकि कर्म इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य तो हैं परन्तु पौद्गलिक नहीं हैं। परन्तु जैनमत में कर्म को पौद्गलिक माना है अतः कर्म से हेतु में व्यभिचार नहीं आता। उक्त कथन के द्वारा स्पर्श, रस, गन्ध आदि गुणोत्कर से दिये गये व्यभिचार दोष का भी खण्डन कर दिया गया है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि स्पर्श, रस आदि गुण भी स्वतन्त्र तत्त्व नहीं हैं अपितु पुद्गल के ही विकार हैं। उपसंहार - तत्त्वार्थसूत्र के अर्थकर्ता सर्वज्ञ हैं अत: यह सूत्रग्रंथ है नैयायिक और वैशेषिक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और मन इन पाँचों को भिन्न द्रव्य मानते हैं और मूर्तिक कहते हैं परन्तु शब्द को अमूर्तिक और आकाश का गुण मानते हैं। जैनाचार्यों ने शब्द को पुद्गल की पर्याय माना है क्योंकि प्रतिकूल वायु से शब्द का अवरोध होता है और अनुकूल वायु से वह शब्द प्रेरित होता है। अतः शब्द के सर्वगतत्व सिद्ध करने के लिए दिया गया नित्य द्रव्यत्व
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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