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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 33 एतेनानुमानं तद्बाधकमिति प्रत्युक्तं, तस्याननुमानविषयत्वात् / श्रेयोमार्गसामान्यं हि तद्विषयो न पुनस्तद्विशेषः प्रवचनविशेषसमधिगम्यः। प्रवचनैकदेशस्तद्बाधक इति चेत् न, तस्यातिसंक्षेपविस्ताराभ्यां प्रवृत्तस्याप्येतदर्थानतिक्र मस्तद्बाधकत्वायोगात् पूर्वापरप्रवचनैकदेशयोरन्योन्यमनुग्राहकत्वसिद्धेश्च। . यथा वाधुनात्र चास्मदादीनां प्रत्यक्षादि न तद्बाधकं तथान्यत्रान्यदान्येषां च विशेषाभावादिति सिद्धं सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्वमस्य तथ्यतां साधयति / सा च सूत्रत्वं, तत्सर्वज्ञवीतरागप्रणेतृकत्वमिति निरवद्यं प्रणेतुः साक्षात्प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थतया प्रक्षीणकल्मषतया च विशेषणं। मुनींद्रसंस्तुत्यत्वविशेषणं च विनेयमुख्यसेव्यतामंतरेण सतोपि सर्वज्ञवीतरागस्य मोक्षमार्गप्रणेतृत्वानुपपत्तेः, प्रतिग्राहकाभावेपि तस्य तत्प्रणयने अधुना यावत्तत्प्रवर्तनानुपपत्तेः। इस पूर्वोक्त कथन से 'यह अनुमान बाधक है' इसका भी खण्डन कर दिया गया है, क्योंकि अनुमान (उस अतीन्द्रिय मोक्षमार्ग को) विषय नहीं कर सकता है। सामान्य मोक्षमार्ग को विषय अनुमान करता है, विशेष को नहीं। विशेष मोक्षमार्ग तो प्रवचन के द्वारा (आगम से) ही अधिगम्य (जानने योग्य) है। प्रवचन का एकदेश इसका बाधक है। (अर्थात् किसी ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के निरूपण की मुख्यता है, किसी में सम्यग्ज्ञान की और किसी में चारित्र को ही मोक्षमार्ग माना है अतः परस्पर प्रवचन में विरोध आयेगा) ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि संक्षेप से वा विस्तार से प्रवृत्त होने वाले प्रवचन के इस अर्थ (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्र मोक्षमार्ग है) का उल्लंघन नहीं है अर्थात् संक्षेप में वर्णन करने पर कहीं पर दर्शन की मुख्यता से वर्णन किया है, और कहीं पर ज्ञान आदि की मुख्यता से और विस्तार से करने पर तीनों का एक साथ वर्णन किया गया है। इसलिए इन एकदेश ग्रन्थों से इस आदिसूत्र में बाधा का अयोग है अपितु पूर्वापर (आगे-पीछे के) एकएकदेश विषय का निरूपण करने पर परस्पर अनुग्राहकत्व की ही सिद्धि होती है अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः यह पहला सूत्र प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम बाधित नहीं है। सर्वज्ञ वीतराग प्रभु इस सूत्र के अर्थ रूप से प्रतिपादक हैं . जिस प्रकार इस देश में इस काल में हम लोगों के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण से इस सूत्र के बाधकपना नहीं है, उसी प्रकार भिन्न देश, भिन्न काल में भिन्नजनों के प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा भी तत्त्वार्थसूत्र का यह प्रथम सूत्र बाधित नहीं है- क्योंकि इस देश-काल में स्थित हम लोगों में और भिन्न देश-काल में स्थित अन्य लोगों में मोक्षमार्ग के जानने में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार इस सूत्र के सुनिश्चित बाधक प्रमाणों के असंभव हो जाने का निश्चय सिद्ध होता हुआ इस सूत्र को सत्यपने की सिद्धि करा देता है। और इस आदिसूत्र की सत्यता से वह सूत्र सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत है, यह भी ज्ञात हो जाता है। आदि सूत्र को बनाने वाले मोक्षमार्ग के नेता का केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण तत्त्वों का प्रत्यक्ष जान चुकना और घातिया कर्मों का नाश कर चुकना, ये दोनों विशेषण निर्दोष सिद्ध हैं। तथा प्रधान शिष्य के द्वारा सेवनीय न होने से सर्वज्ञ और वीतरांग भी परम गुरु मोक्षमार्ग का प्रणयन (प्रतिपादन) नहीं कर सकते हैं। अतः गम्भीर अर्थ के प्रतिपादक सूत्र को बनाने वाले सर्वज्ञ का 'मुनीन्द्रों के द्वारा सेवनीय है' यह विशेषण भी निर्दोष सिद्ध है। क्योंकि उपदेश को ग्रहण करने वाले सुविनीत बुद्धिमान् शिष्य के अभाव में मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने वाले सूत्र का उपदेश देने पर आज तक
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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