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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 27 घटादेरेकद्रव्यत्वप्रतीतेः। न ह्येकप्रदेशत्वेनैवैकद्रव्यत्वं व्याप्तं येन परमाणोरेवैकद्रव्यता। नापि नानाप्रदेशत्वेनैव यतो घटादेरेवेति व्यवतिष्ठते, एकद्रव्यत्वपरिणामेन तस्याः व्याप्तत्वदर्शनात् / सकललोकप्रसिद्धा होकद्रव्यत्वपरिणतस्यैकद्रव्यता.नानाद्रव्यत्वपरिणतानामर्थानांनानाद्रव्यतावत। स्यादेतद्वाधकाभावे सतीति हेतुविशेषणं सिद्धं गौरित्यादिशब्दस्य सर्वगतस्य युगपद्व्यंजकस्य देशभेदाद्भिनदेशतयोपलभ्यमानस्य स्वतो देशविच्छिन्नतयोपलंभासंभवादिति। तदयुक्तं / तस्य सर्वगतत्त्वासिद्धेः कूटस्थत्वेनाभिव्यंग्यत्वप्रतिषेधाच्च। सर्वगतः शब्दो नित्यद्रव्यत्वे सत्यमूर्त्तत्वादाकाशवदित्येतदपि न शब्दसर्वगतत्वसाधनायालं, जीवद्रव्येणानैकांतिकत्वात् / के एकद्रव्यपने की सिद्धि हो सके। (अर्थात् परमाणु एकप्रदेशी होने से एक द्रव्य है ऐसा भी सिद्ध नहीं हो सकता। और यह भी व्याप्ति नहीं है कि जो-जो अनेक प्रदेशों में रहते हैं, वे ही एक द्रव्य हैं जिससे घट आदि द्रव्यों के एकद्रव्यपना व्यवस्थित हो। एकद्रव्यत्व परिणमन के साथ ही उसकी व्याप्ति देखी जाती है अतः चाहे एक प्रदेश में रहने वाला पदार्थ हो, वा अनेक देशों में स्थित हो, यह सकल लोकप्रसिद्ध है कि यदि उसकी एकद्रव्यत्व (अखण्डसम्बन्ध) से परिणति (परिणमन) है तो उसके एकद्रव्यता है, जैसे अनेक द्रव्यत्व से भिन्न-भिन्न परिणमन करने वाले पदार्थों में नानाद्रव्यता है। जैसे एकद्रव्यत्व से परिणत होने से कालाणु, आत्मा, आकाश आदि में एकद्रव्यत्व है और पृथक्-पृथक् परिणमन करने वाले देवदत्त जिनदत्त गो महिषी आदि में नानापना है। अतः भिन्न-भिन्न होने से शब्दों में पृथक्ता सिद्ध ही है। शंका - 'बाधकाभाव होने पर' यह हेतु का विशेषण असिद्ध है क्योंकि सर्वगत, युगपत् व्यञ्जक (एक साथ प्रगट करने वाली वायु) के भिन्न-भिन्न देशों में रहने से भिन्न देशों में उपलभ्यमान 'गो' इत्यादि शब्द के स्वतः खण्ड-खण्ड होकर देशभिन्नता से उपलब्ध होना (सुनाई देना) संभव नहीं है। उत्तर - ऐसा कथन करना उचित नहीं है क्योंकि शब्द के सर्वगतत्व की असिद्धि है तथा वायु के द्वारा अभिव्यक्ति होती है शब्द की, यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि कूटस्थ नित्य के अभिव्यक्ति का निषेध है। शब्द सर्वगत नहीं है . 'आकाशवत् नित्य द्रव्य और अमूर्तिक होने से शब्द सर्वगत है,' यह हेतु भी शब्द का सर्वगतत्व सिद्ध करने में समर्थ नहीं है क्योंकि जीव द्रव्य के साथ इस हेतु में व्यभिचार दोष आता है अर्थात् अमूर्तिक और नित्य द्रव्यत्व होने पर भी जीवद्रव्य सर्वगत नहीं है। शंका - जीव द्रव्य को भी सर्वगत मान लेने पर अनैकान्तिक दोष नहीं होगा। उत्तर - ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि आत्मा का व्यापकत्व, प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान से बाधित है वा प्रत्यक्षादि ज्ञान से विरोध आता है - श्रोत्र इन्द्रिय से होने वाला प्रत्यक्ष शब्द नियतदेशता से ही उपलब्ध
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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