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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 26 नाप्येकेनादित्येन नानापुरुषैः सकृद्भिन्नदेशतयोपलभ्यमानेन प्रत्यक्षानुमानाभ्यामेकपुरुषेण वा नानाजलपात्रसंक्रांतादित्यबिंबेन प्रत्यक्षतो दृश्यमानेनेति युक्तं वक्तुं, बाधकाभावे सतीति विशेषणात् / न ह्ये कस्मिन्नादित्ये सर्वथा भिन्नदेशतयोपलभ्यमाने बाधकाभावः, प्रतिपुरुषमादित्यमालानुपलंभस्य बाधकस्य सद्भावात् / पर्वतादिनैकेन व्यभिचारीदमनुमानमिति चेत् / न। तस्य नानावयवात्मकस्य सतो बाधकाभावे सति युगपद्भिनदेशतयोपलभ्यमानत्वं व्यवतिष्ठते / निरवयवत्वे तथाभावविरोधादेकपरमाणुवत् / व्योमादिना तदनैकांतिकत्वमनेन प्रत्युक्तं, तस्याप्यनेकप्रदेशत्वसिद्धेः। खादेरनेकप्रदेशत्वादेकद्रव्यविरोध इति चेत् / न / नानादेशस्यापि शंका - एक ही सूर्य एक साथ नाना देशों में स्थित नाना पुरुषों के द्वारा भिन्न उपलब्ध होता है। वा एक ही पुरुष प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुमान ज्ञान से पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होता है। अथवा एक ही सूर्य जलपात्रों में संक्रान्त होकर अनेक प्रकार का दिखता है अत: “नाना देशों में दृष्टिगोचर होनेवाले एक नहीं हैं, अनेक हैं" यह हेतु बाधित है। उत्तर - इन दृष्टान्तों से हमारे हेतु में अनैकान्तिक दोष देना युक्त नहीं है। क्योंकि स्याद्वादियों ने हेतु में 'बाधकाभाव' विशेषण को ग्रहण किया है। परन्तु एक सूर्य के भिन्न-भिन्न देश से उपलब्ध होने में सर्व प्रकार से बाधा का अभाव नहीं है। क्योंकि प्रत्येक मानव को अनेक सूर्यों की पंक्ति का न दिखना ही सूर्यों की अनेकता का बाधक प्रमाण विद्यमान है अत: बाधक प्रमाण से रहित होकर जो अनेक देशों में विद्यमान दिखाई देगा, वह अनेक अवश्य है। ' __शंका - एक पर्वत आदि के द्वारा यह तुम्हारा अनुमान व्यभिचारी है अर्थात् एक ही पर्वत नदी आदि अनेक देशों में स्थित पुरुषों को भिन्न-भिन्न दीखते हैं अतः एक भी अनेक रूप से दृष्टिगोचर होने से 'एक होता है वह अनेक रूप से ग्राह्य नहीं होता' यह हेतु व्यभिचारी है। उत्तर - इस प्रकार अनैकान्तिक दोष देना उचित नहीं है क्योंकि बाधक कारणों के अभाव में नाना अवयवात्मक उन नदी पर्वत आदि की युगपद् भित्रदेशता से उपलभ्यता व्यवस्थित है। उनको निरंश मान लेने पर तो परमाणु के समान तथाभाव (एक की अनेक देशों में उपलभ्यता) का विरोध आता है, अर्थात् अवयवरहित एक का एक साथ अनेक देशों में रहने में विरोध है। अतः पर्वतादि से भी हेतु व्यभिचारी नहीं हो सकता। आकाश आदि के द्वारा दिया गया अनैकान्तिक दोष भी इस पूर्वोक्त हेतु से खण्डित हो जाता है। क्योंकि आकाश आदि द्रव्यों के अनेकप्रदेशीपना सिद्ध ही है। आकाश आदि द्रव्यों को अनेकप्रदेशी मान लेने पर उनमें एकद्रव्यत्व का विरोध आयेगा, ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि नाना प्रदेशों में रहने वाले घटादि में एकद्रव्यत्व की प्रतीति होती है। अतः जो एक ही प्रदेश में रहता है, वही एक द्रव्य है, ऐसी कोई व्याप्ति नहीं है जिससे कि परमाणु
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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