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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 25 स एवायं शब्द इत्येकशब्दपरामर्शिप्रत्ययस्य बाधकाभावात्तन्निबंधनत्वसिद्धिस्तत एव नीलज्ञानस्य नीलनिबंधनत्वसिद्धिवदिति चेत् / स्यादेवं यदि तदेकत्वपरामर्शिनः प्रत्ययस्य बाधकं न स्यात्, स एवायं देवदत्त इत्याद्येकत्वपरामर्शिप्रत्ययवत् / अस्ति च बाधकं नाना गोशब्दो बाधकाभावे सति युगपद्भिन्नदेशतयोपलभ्यमानत्वाद् ब्रह्मवृक्षादिवदिति / न तावदिदमेकेन पुरुषेण क्रमशोऽनेकदेशतयोपलभ्यमानेनानैकांतिकं, युगपद्ग्रहणात् / मीमांसकों का कथन है कि 'यह वही शब्द है' इस प्रकार पूर्व और पश्चात् उच्चारित शब्दों में एकपने का विचार करने वाले ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा न होने से 'प्रवाह रूप से शब्द की नित्यता को ग्रहण करने वाले एकत्व प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि हो जाती है जैसे नील के (नीले रंग के) ज्ञान में उसी पूर्व की नील वस्तु का कारणपना सिद्ध हो जाता है। अर्थात् किसी नीली वस्तु को पूर्व में देखा था पश्चात् उसको देख कर यह वही नीली वस्तु है जिसको मैंने पूर्व में देखा था, ऐसा एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता है - उसी प्रकार कर्णेन्द्रिय से शब्द को सुनकर पश्चात् किसी शब्द के सुनने पर 'यह वही शब्द है, जिसको मैंने पूर्व में सुना था', ऐसा एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता है और इसी ज्ञान के बल पर शब्दों में प्रवाह रूप से नित्यता सिद्ध होती है। विद्यानंद आचार्य का उत्तर - "यह वही देवदत्त है (जिसको कल देखा था) इस प्रकार एकत्वपरामर्शिज्ञान में जैसे बाधा का अभाव है उसी प्रकार यदि शब्द की प्रवाह नित्यता सिद्ध करने वाले एकत्वपरामर्शि (एकत्वप्रत्यभि) ज्ञान में किसी प्रमाण से बाधा नहीं आती हो तो 'एकत्व प्रत्यभिज्ञान शब्द की प्रवाहनित्यता सिद्ध करने वाला हो सकता है, परन्तु शब्द की प्रवाह नित्यता सिद्ध करने वाले एकत्वप्रत्यभिज्ञान में अनुमान ज्ञान से बाधा आती है। अनुमान का प्रयोग - जैसे “नाना व्यक्तियों के द्वारा उच्चारित गोशब्द, बाधक कारणों के अभाव में, एक साथ भिन्न-भिन्न देशों में उपलब्ध होता है, इसलिए अनेक है। जैसे भिन्न-भिन्न देशों में एक काल में उपलब्ध होने वाले वट-वृक्षादि अनेक हैं। अतः इस अनुमान ज्ञान से बाधित होने से एकत्वप्रत्यभिज्ञान से शब्द में एकत्व सिद्ध नहीं हो सकता। _एक ही पुरुष क्रमशः अनेक देशों में उपलभ्यमान है अत: अनेक देशों में दृष्टिगोचर होने वाले अनेक होते हैं, यह हेतु व्यभिचारी अनैकान्तिक दोष से दूषित है, ऐसा स्याद्वादियों के इस हेतु में नहीं है, क्योंकि हमने 'युगपद्' यह विशेषण दिया है। जो एक साथ नाना देशों में दिखाई देता है, या सुनाई देता है, वह एक नहीं हो सकता। अत: नाना देशों में 'युगपत्' उपलब्ध होने वाली वस्तु एक नहीं हो सकती। इस हेतु में 'नाना देशों में भिन्न कालों में एक के दृष्टिगोचर होने से बाधा नहीं आ सकती।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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