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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२८ 'तस्यापि पक्षीकरणान्न तेनानेकांत' इति चेत् न, प्रत्यक्षादिविरोधात्। श्रोत्रं हि प्रत्यक्षं नियतदेशतया शब्दमुपलभते, स्वसंवेदनाध्यक्षं चात्मानं शरीरपरिमाणानुविधायितयेति कालात्ययापदिष्टो हेतुस्तेजोनुष्णत्वे द्रव्यत्ववत् / स्वरूपासिद्धश्च सर्वथा नित्यद्रव्यत्वामूर्तत्वयोर्धर्मिण्यसंभवात् / तथा हि। परिणामी शब्दो वस्तुत्वान्यथानुपपत्तेः, न वस्तुनः प्रतिक्षणविवर्तेनैकेन व्यभिचारस्तस्य वस्त्वेकदेशतया वस्तुत्वाव्यवस्थितेः / न च तस्या वस्तुत्वं वस्त्वेकदेशत्वाभावप्रसंगात् / वस्तुत्वस्यान्यथानुपपत्तिरसिद्धेति चेत् / न। एकांतनित्यत्वादौ पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्थितिलक्षणपरिणामाभावे क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधा - होता है और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष आत्मा की उपलब्धि शरीर परिमाण के द्वारा ही होती है अर्थात् शब्द कर्णेन्द्रिय स्थान से सुना जाता है और आत्मा शरीर-परिमाण से अनुभव में आता है, सर्वगत से नहीं है। अतः जैसे द्रव्यत्व होने से अग्नि में ठंडापना सिद्ध करना कालात्ययापदिष्ट (प्रत्यक्षबाधित हेत्वाभास) है उसी प्रकार अमूर्तिक एवं नित्य होने से आत्मा और शब्द को सर्वगत (व्यापकत्व) सिद्ध करना प्रत्यक्षबाधित है। अर्थात् अग्नि के ठंडापन सिद्ध करने में दिया द्रव्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट है उसी प्रकार आत्मा और शब्द का व्यापकत्व सिद्ध करने के लिए दिया गया 'नित्य द्रव्यत्व' हेतु प्रत्यक्षबाधित है। किञ्च - शब्द को सर्वगत सिद्ध करने के लिए दिया गया नित्यद्रव्यत्व और अमूर्त्तत्व हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास भी है - क्योंकि शब्दरूप धर्मी (पक्ष) में नित्यद्रव्यता और अमूर्तत्व धर्म की सर्वथा असंभवता है। अर्थात् नियत इन्द्रियग्राह्य होने से शब्द में अमूर्तत्व और नित्यत्व सर्वथा स्वरूप से ही असिद्ध है। शब्द परिणामी, पौद्गलिक और क्रियावान् है इसी बात को आचार्य अनुमान के द्वारा सिद्ध करते हैं - 'शब्द परिणामी है क्योंकि परिणामी के बिना शब्द में वस्तुपना सिद्ध नहीं हो सकता'। वस्तु की प्रतिक्षण में होने वाली एक पर्याय के द्वारा इस हेतु में व्यभिचार भी नहीं आ सकता (अर्थात् वस्तु के प्रतिक्षण में होने वाली पर्यायों में वस्तुत्व तो है परन्तु वह एकसमयवर्ती होने से दूसरे समय में परिणमन नहीं करती है अतः वस्तु के साथ परिणमन की अनिवार्यता न होने से यह हेतु व्यभिचारी है, ऐसा भी नहीं कह सकते।) क्योंकि प्रतिक्षण होने वाली वस्तु की एकदेश पर्याय से वस्तुत्व की व्यवस्था नहीं हो सकती। तथा वस्तु के एकदेशत्व के अभाव का प्रसंग आने से वस्तु की क्षणवर्ती पर्याय के अवस्तुपना भी नहीं है। ‘परिणामी के बिना वस्तुत्व नहीं रहता' वस्तुत्वान्यथानुपपत्तेः। यह हेतु असिद्ध है, ऐसा भी कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जो पदार्थ को सर्वथा नित्य, अनित्य वा उभय मानते हैं उनके ही सर्वथा नित्य आदि में पूर्व पर्याय का विनाश, उत्तर पर्याय का ग्रहण (उत्पाद) और कालान्तर स्थायी पर्याय से स्थित रहने रूप परिणाम का अभाव होने पर युगपत् (एक साथ) और क्रम से होने वाली वस्तु की अर्थक्रिया का विरोध होने से वस्तुत्व की असंभवता है (अनेकान्तवाद में नहीं) अर्थात् अर्थक्रिया करने में वस्तु की पूर्व पर्याय का त्याग नवीन पर्याय का ग्रहण और द्रव्य के साथ अन्वय
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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