________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२० प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थे साक्षात् प्रक्षीणकल्मषे / सिद्धे मुनीन्द्रसंस्तुत्ये मोक्षमार्गस्य नेतरि // 2 // सत्यां तत्प्रतिपित्सायामुपयोगात्मकात्मनः। . श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य प्रवृत्तं सूत्रमादिमम् // 3 // तेनोपपन्नमेवेति तात्पर्य / सिद्धे प्रणेतरि मोक्षमार्गस्य प्रकाशकं वचनं प्रवृत्तं तत्कार्यत्वादन्यथा प्रणेतृव्यापारानपेक्षत्वप्रसंगात् तद्व्यंग्यत्वात्तत्तदपेक्षमितिचेत् / न। कूटस्थस्य सर्वथाभिव्यंग्यत्वविरोधात्तदभिव्यक्तेरव्यवस्थितेः / सा हि यदि वचनस्य संस्काराधानं तदा ततो भिन्नोऽन्यो वा संस्कारः प्रणेतृव्यापारेणाधीयते, यद्यभिन्नस्तदा वचनमेव तेनाधीयत इति कथं कूटस्थं नाम / भिन्नश्चेत्पूर्ववत् तस्य सर्वदाप्यश्रवणप्रसंगः। प्राक् पश्चाद्वा श्रवणानुषंग: साक्षात् जान लिया है संपूर्ण तत्त्वार्थ को जिन्होंने (सर्वज्ञ), नष्ट कर दिया है ज्ञानावरणादिघातिया कर्मों को जिन्होंने, (वीतरागी) मुनियों (गणधरों) के द्वारा संस्तुत, मोक्षमार्ग के नेता (हितोपदेशी) जिनेन्द्र के सिद्ध हो जाने पर (मंगलाचरण में 'मोक्षमार्गस्य' इत्यादि वाक्य से वक्ता की सिद्धि हो जाने पर). ही उमास्वामी आचार्य ने कल्याण से भविष्य काल में युक्त (परिणत) होने वाले उपयोगात्मक शिष्य की मोक्षमार्ग को जानने की तीव्राभिलाषा होने पर “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस प्रथम सूत्र की रचना की है // 2-3 // इससे यह तात्पर्य निकला कि मोक्षमार्ग के प्रणेता सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाने पर ही मोक्षमार्गप्रणेता का कार्य होने से मोक्षमार्ग के प्रकाशक वचनों की प्रवृत्ति हुई है। अन्यथा, यदि वचन का कारण वक्ता को नहीं माना जायेगा तो प्रणेता (वक्ता) के कण्ठ तालु आदि व्यापार की अनपेक्षा का प्रसंग आयेगा। शब्द-नित्यवाद का खण्डन शंका - शब्द वक्ता के व्यापार से उत्पन्न नहीं हैं - अपितु पूर्व में ही स्वतः विद्यमान शब्द वक्ता के द्वारा व्यक्त किये जाते हैं - अतः वक्ता के तालु, कण्ठं आदि के व्यापार की शब्द में अपेक्षा नहीं है। उत्तर - वक्ता के व्यापार से रहित शब्द की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है क्योंकि सर्वथा (एकान्ततः) अपरिणामी कूटस्थ नित्य शब्द के अभिव्यक्ति का विरोध आता है अतः कूटस्थ शब्द की अभिव्यक्ति की व्यवस्था ही नहीं बन सकती। अर्थात् कूटस्थ अपरिणामी का परिणमन नहीं हो सकता। अथवा उस अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है - यदि कहो कि तालु आदि व्यापार के द्वारा वर्तमान में कुछ संस्कार धारण करा देना ही अभिव्यक्ति है तो वे प्रणेता के व्यापार से किये गये संस्कार शब्द से भिन्न हैं कि अभिन्न हैं? यदि शब्द से अभिन्न संस्कार प्रणेता के व्यापार से उत्पन्न होते हैं, वक्ता के व्यापार ने शब्द ही उत्पन्न किया अतः शब्द कूटस्थ नित्य कैसे हो सकते हैं ? यदि कहो कि संस्काररूप शब्दों की अभिव्यक्ति शब्द से भिन्न है तो जैसे वक्ता के व्यापार से अभिव्यक्त संस्कार के पूर्व शब्द श्रवणगोचर